ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय इनको तू कर्म का बीज जान अर्थात कर्म की प्रेरणा इन से ही होती है।
अपना स्वाभाविक कर्म दोष युक्त होने पर भी उसे नहीं त्यागना चाहिए।
नियत कर्म अवश्य करने चाहिए। यदि मूढ़ता अथवा अज्ञान के कारण नियत कर्म का त्याग कर देता है, तो वह त्याग तामस त्याग है।
आत्मगीता - भाष्यकार- प्रो. बसन्त प्रभात जोशी
अथ अष्टादशोऽध्यायःमोक्षसन्न्यासयोग
अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ।1।
अर्जुन बोले हे भगवान, सन्यास और त्याग लगभग एक से समझ में आते हैं परन्तु आपने उनकी चर्चा अलग-अलग की है। उनके प्रथक-प्रथक तत्व को बताने की कृपा करें। क्या दोनों एक हैं अथवा अलग-अलग हैं?
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।2।
श्री भगवान बोले, हे अर्जुन, दान सम्बन्धी अनेक कर्म हैं जो फल की इच्छा से किये जाते हैं जैसे अन्न, धन, भूमि, गोदान, धर्मशाला, कुँआ, तालाब, मन्दिर, पाठशाला आदि बनाना और इन सभी का फल अवश्य मिलता है और उसे भोगना भी पड़ता है पर जो सन्यास अर्थात ज्ञान मार्ग का साधक है उसे इन दान सम्बन्धी काम्य कर्म का त्याग कर देना चाहिए। काम्य कर्म के त्याग से मन की वासना का नाश होता है परन्तु जो कर्म स्वाभाविक हैं उन्हें तो करना देह धारी के लिए आवश्यक है अतः उन कर्मों को करते हुए उनके फल का त्याग, ‘त्याग‘ कहलाता है अर्थात फल का त्याग, त्याग है और काम्य कर्म का त्याग सन्यास है।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।3।
कई मनीषि कहते हैं सभी कर्म दोष युक्त हैं और त्यागने योग्य हैं। अन्य मनीषि कहते हैं परमात्मा के निमित्त कर्म, दान, तप कर्म त्यागने योग्य नहीं है। इस विषय में भिन्न भिन्न मत हैं, अतः तू मेरा निश्चय सुन।
निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।4।
हे अर्जुन, त्याग और सन्यास में पहले तू त्याग के बार में सुन। त्याग तीन प्रकार का होता है, सात्विक, राजस, और तामसिक।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।5।
परमात्मा निमित्त कर्म, दान, तप त्यागने योग्य नहीं हैं वह अवश्य करने चाहिए। जब आत्म ज्ञान हो जाय तब बात दूसरी है तब तक इन सबका मनोयोग से आचरण करना चाहिए। क्योंकि परमात्मा के निमित्त कर्म, दान, तप यह सत्कर्म साधक को पवित्र करने वाले हैं। आत्म ज्ञान से पहले इन सत्कर्मों को डूबते को तिनके का सहारा मान करना चाहिए।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।6।
हे पार्थ परमात्मा के निमित्त कर्म, दान, तप तथा अन्य स्वाभाविक कर्मों को आसक्ति और फल त्याग करके अवश्य करना चाहिए। उसमें अहंकार का भाव नहीं होना चाहिए। जो कर्म उपस्थित हो उसे आसक्ति और फल का त्याग करते हुए करना चाहिए। अनासक्त हुआ ऐसा पुरुष कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ।7।
नियत कर्म अवश्य करने चाहिए। यदि मूढ़ता अथवा अज्ञान के कारण नियत कर्म का त्याग कर देता है, तो वह त्याग तामस त्याग है। बीमार व्यक्ति औषधि का अपनी मूर्खता व हठ से त्याग कर दे तो वह तामस त्याग है।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।8।
सभी कर्म दुख का कारण है और कर्म की कठिनाई से घबरा कर, शारीरिक श्रम से घबराकर कर्म छोड़ दे तो ऐसा त्याग राजस त्याग कहलाता है जैसे विद्यार्थी मेहनत के भय से पढ़ना छोड़ दे।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ।9।
जिस कर्म की शास्त्र आज्ञा देते हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिसका आचरण करते हैं, जो विधि सम्मत है ऐसे कर्म को कर्तव्य समझकर निष्काम भाव से करना चाहिए अर्थात आसक्ति और फल का त्याग कर देना चाहिए। यही सात्विक त्याग कहा जाता है।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।10।
प्रारब्ध वश यदि बुरी घटना हो जाय तो चिन्ता नहीं करता, अच्छी घटना हो जाय तो प्रसन्न नहीं होता अर्थात शुभ-अशुभ के उपस्थित होने पर समभाव में स्थित रहता है, जो अहंभाव, कर्ता भाव से मुक्त हो जाता है, जिसके समस्त संशय मिट गये हैं, ऐसा सतोगुणी पुरुष सच्चा त्यागी है क्योंकि उसकी बुद्धि का निश्चय सही है।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ।11।
किसी भी शरीर धारी के लिए अकर्म रत होना अर्थात सम्पूर्णता से सभी कर्मों को छोड़ देना सम्भव नहीं है क्योंकि सांस लेना, देखना, सुनना, भोजन करना, शौच आदि का त्याग नहीं किया जा सकता है। अतः जिसने मन से कर्म फल का त्याग कर दिया है जो निष्काम भाव से कर्म करता है वही त्यागी है।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ।12।
सकाम कर्म अर्थात फल की इच्छा से जो कर्म किया जाता है वह तीन प्रकार का होता है अच्छा, बुरा और मिला हुआ और शरीर छोड़ने के बाद भी तीन प्रकार का फल अवश्य होता है। जैसा बीज वैसा फल परन्तु जो मनुष्य कर्मफल में आसक्ति का त्याग कर देता है, जिसके संकल्प विकल्प समाप्त हो गये हैं, जहाँ कर्तापन का भाव समाप्त हो जाता है वहाँ वासना समाप्त हो जाती है, उसके संसार, उसके कर्मों से, मन का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। अतः वह कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।13।
हे अर्जुन, सभी कर्मों के होने के लिए ये पांच कारण सांख्य शास्त्र में बताये हैं, जो सांख्य शास्त्र यह बताता है कि कर्मों का अन्त किस प्रकार किया जा सकता है।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ।14।
हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जान। अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।15।
मनुष्य मन वाणी और शरीर से शास्त्र सम्मत अथवा विपरीत जो कुछ भी आचरण करता है, कर्म करता है,उसके उत्तरदायी यह पांच शरीर, जीवात्मा (जीव बुद्धि), इन्द्रियां, चेष्टा और प्रारब्ध कर्म हैं।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।16।
यह होने पर भी जो मनुष्य भ्रमित बुद्धि के कारण, अज्ञान के कारण, कर्मों के होने में केवल आत्मा को (देह बुद्धि के कारण) कर्ता समझता है उसकी मति ठीक नहीं है वह सत्य नहीं जानता।
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।17।
परन्तु जो इस भाव को रखता है कि मैं अकर्ता हूँ, आत्मा को अकर्ता समझता है उसकी बुद्धि संसार में लिप्त नहीं होती। वह सदा आत्मरत योगी आत्मा को सर्वत्र तथा सभी को आत्मा में स्थित देखता है। ऐसा मनुष्य यदि सब लोको को नष्ट कर दे, मार दे तो भी वास्तव में न वह मारता है, न कर्म बन्धन से बंधता है। जब कर्ता का भाव ही नहीं, तो कौन कर्म, किसके द्वारा कर्म।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ।18।
ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय इनको तू कर्म का बीज जान अर्थात कर्म की प्रेरणा इन से ही होती है। ज्ञाता जो जानता है अर्थात जीव ज्ञाता है, ज्ञान जिसके द्वारा जाना जाये, ज्ञेय वस्तु अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध द्वारा जानने में आने वाली वस्तु। जीव शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की ओर दौड़ता है। कर्ता, करण, क्रिया यह तीन कर्म के अंग हैं। किसी कार्य को किया जाय अथवा नहीं; जब ज्ञाता इन्द्रियों द्वारा उस ओर बढ़ता है तो कर्ता कहलाता है। जब इन्द्रियों से औजार की तरह काम लेता है तो करण। इन्द्रियों के लिए कर्ता, जो क्रिया उत्पन्न करता है वह कर्म हैं जैसे चलना, बोलना आदि।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ।19।
इस विषय में सांख्य शास्त्र में ज्ञान, कर्म और कर्ता को गुणों के अनुसार तीन तीन प्रकार का बताया गया है। सृष्टि के सभी जीवों और उनके कार्यों को गुणों के आधार पर तीन तीन भागों में विभाजित किया है।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।20।
जिस ज्ञान द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय उसी में लीन हो जाते हैं, उस समय सम्पूर्ण भूतों में अविनाशी परमतत्व आत्मा को देखता है और यह देखता है कि वह परमतत्व ही समस्त भूतों में अलग अलग रूप से स्थित है, यद्यपि वह एक ही है। वह ज्ञान सात्विक ज्ञान है।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।21।
जिस ज्ञान के द्वारा सब प्राणियों में जो सत्त्व, रज, तम से उत्पन्न भिन्न भिन्न प्रकार के भाव हैं उनको अलग अलग देखता है, सांसारिक बुद्धि से देखता है और प्रत्येक सांसारिक ज्ञान को ही सर्वोपरि समझता है वह ज्ञान राजस ज्ञान है।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम् ।22।
जिस ज्ञान द्वारा किस कार्य को करना है, बिना विवेक व मूढ़ता से किया जाता है, भोजन खाना है, चाहे सड़ा है, दुर्गन्ध युक्त है, जिसे अपने किसी कार्य में अच्छे बुरे की समझ नहीं है जैसे मक्खी अच्छी बुरी जगह बैठती है, ऐसे ही जिसके कर्म हैं, बिना युक्ति के, बिना विवेक के जिस कार्य का कुछ अर्थ नहीं है, ऐसा ज्ञान जो अज्ञान है, भ्रमित कर देता है वह तामस ज्ञान कहलाता है।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ।23।
जो शास्त्र विधि से नियत है, उन्हें कर्तापन के अभिमान से बिना देह बुद्धि के, बिना किसी आशा और फल के, बिना किसी कामना के, सभी प्राणियों का हित करने के लिए किया जाता है वह कर्म सात्विक कर्म कहलाता है।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।24।
जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है जिसमें यह इच्छा होती है चाहे कितना समय मेहनत करनी पड़े मैं इसे हर हालत में करके रहूंगा, जहाँ किसी कर्म से किसी विशेष फल की इच्छा होती है, जो कर्म अहंकार से पाखण्ड करते हुए अपने मान सम्मान, दिखाने के लिए किया जाता है वह कर्म राजस कर्म कहलाता है।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।25।
जो कर्म करने से किसी फल की प्राप्ति नहीं होती है, जो कर्म उसका परिणाम जाने बिना कि इस कार्य से कितनी हिंसा होगी, कितनी हानि होगी केवल मूढ़ता वश किया जाता है, जहाँ अपनी सामर्थ्य का भी विचार नहीं किया जाता कि इस कार्य को मैं कर भी सकता हूँ या नहीं, केवल अज्ञान से किया जाता है और परिणाम में हानि के अतिरिक्त कुछ नहीं आता है वह कर्म तामस कर्म कहा जाता है।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।26।
जो कर्ता आसक्ति रहित है, गुणों का संग नही करता है, जो अहंकार रहित है, धैर्य और उत्साह से युक्त है, कार्य सफल हो अथवा असफल वह विकार रहित रहता है अर्थात सफल होने में प्रसन्न और असफल होने में दुखी नहीं होता ऐसा कर्ता सात्विक कर्ता कहा जाता है।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।27।
जो कर्म आसक्ति से युक्त है, कर्म फल की इच्छा से कर्म करता है। लोभी है धन, जमीन, पद, प्रतिष्ठा का इच्छुक है दूसरों को कष्ट देने का स्वभाव रखता है अर्थात अहंकारी है, पाखण्डी है, अपने आचरण से अशुद्ध है जो कार्य के सफल होने पर प्रसन्न और असफल होने पर दुखी होता है, ऐसा कर्ता राजस कहा गया है।
आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।28।
जो कर्ता उस कार्य के लायक ही नहीं है, जड़ मूर्ख है, किम कर्तव्य विमूढ़ है, धूर्त है दूसरे की जीविका का नाश करने वाला है, सदा विषाद से ग्रस्त रहता है, आलसी है और साधारण कार्य जो तत्काल निपटाया जा सकता है, कल पर छोड़ने वाला है, ऐसा कर्ता तामस कर्ता कहा जाता है।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ।29।
हे अर्जुन, इस प्रकार बुद्धि और धृति के भी सत्त्व, रज, तम गुणों के आधार पर तीन प्रकार के भेद सम्पूर्णता से विभाग पूर्वक सुन।
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।30।
हे अर्जुन, पहले मैं तुझे बुद्धि के बारे में बताता हूँ। जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग (अर्थात संसार में रहते हुए अनासक्त रूप से अपने स्वरूप की ओर प्रवृत्त होता है) और निवृत्ति मार्ग को जानती है (अर्थात विशुद्ध ज्ञान स्वरूप पूर्ण परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से स्थित हो, संसार से उपराम होकर रहता है जैसे सनक सनकादि), क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए अर्थात कर्म, अकर्म, विकर्म को भली भांति जानती है, भय और अभय अर्थात जो भय रहित है, जिससे सभी प्राणी अभय पाते हैं तथा जो बन्धन और मोक्ष को जानती है अर्थात देह भाव, आसक्ति, संकल्प, कर्मफल की इच्छा बन्धन है और अनासक्त और समत्व भाव मुक्ति है, इसे यथार्थ से जानती है वह बुद्धि सात्विक है।
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।31।
हे अर्जुन, जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म के विषय में नहीं जानता कि क्या कर्म है, क्या अकर्म है, क्या विकर्म है ? जिस बुद्धि को यथार्थ का ज्ञान नहीं है, जो बुद्धि बिना सोचे समझे अच्छे और बुरे का आचरण करती है, वह राजसी बुद्धि है।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।32।
हे अर्जुन, तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को धर्म मान लेती है। जो दिन को रात समझ ले, उस बुद्धि में मूढ़ता भरी है। इस कारण सम्पूर्ण पदार्थों को विपरीत मान लेती है। औषधि उसे जहर दिखायी देती है, जो पदार्थ उसके लिए जहर हो वह औषधि दिखायी दे, वह बुद्धि तामसी है।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।33।
हे अर्जुन, पतिव्रता स्त्री की तरह न डिगने वाली अव्यभिचारिणी, जिस धारण शक्ति द्वारा मनुष्य मन, प्राण, इन्द्रियों की क्रियाओं का निग्रह कर आत्मयोग में स्थित होता है, वह धारणा शक्ति सात्विक है।
यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।34।
राजस धारणा शक्ति को रखने वाला मनुष्य फल की इच्छा रखता है। अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ, काम को धारण करता है। अपनी बुद्धि और फायदे के लिए साहस और उत्साह से कार्य और व्यापार करता है।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।35।
तमस धारणा शक्ति का व्यक्ति अत्यन्त नीच गुणों से युक्त होता है। उसकी बुद्धि अधम होती है वह सदा नींद, भय, चिन्ता, दुःख और मद अर्थात उन्मत्तता जैसे शराबी मद में बुद्धि से अन्धा हो जाता है; को नहीं छोड़ता, ऐसा व्यक्ति नींद में गया तो सोता ही रहता है, हमेशा विषाद में रहता है, शोक उसे नहीं छोड़ता और अवसाद की बीमारी से ग्रस्त रहता है।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ।36।
हे अर्जुन, अब तू सुख के विषय में सुन। यह भी गुणों के आधार पर तीन तरह का होता है। जिस समय मनुष्य अपनी आत्मा से मिलने के लए अभ्यास करता है, उस अभ्यास अर्थात भजन, कीर्तन, मनन, ध्यान आदि द्वारा आत्मरत होता है और आत्मरस को महसूस करता है, जिसे प्राप्त होकर दुःखों का अन्त हो जाता है।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।37।
ऐसा सुख प्रारम्भ में विष के समान प्रतीत होता है क्योंकि मन इन्द्रियाँ आदि बाहर की ओर भागते हैं। विषय उनके प्रिय हैं, उनको रोककर, जो अज्ञात है, निराकार है की ओर ले जाना, उसके लिए संसार की विषय वासना छोड़ना, प्रारम्भ में विष की तरह कड़ुवा होता है जैसे बच्चे को पढ़ना विष तुल्य लगता है परन्तु विद्या का परिणाम हमेशा शुभ होता है। इस प्रकार जब आत्मरस मिलने लगता है और आत्मरस में वह डूबने लगता है तब उसे अपना निश्चय सही लगता है क्योंकि परिणाम में से अमृत के तुल्य आनन्द मिलता है। यह आत्मा की ओर बुद्धि से उत्पन्न होने वाला सुख सात्विक सुख कहलाता है।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।38।
जिस सुख का कारण विषय और इन्द्रियों का संयोग है वह विषय जब मिलता है तो अहं भी तुष्ट होता है, मन भी तुष्ट होता है, इन्द्रियाँ भी तुष्ट होती हैं परन्तु यदि नही मिलता तो वही विषय घोर अशान्ति देता है। ऐसा भी नहीं कि वह विषय बार-बार मिले और यदि मिले तो फिर पहले की तरह मन, इन्द्रियां, उस विषय को भोगने में समर्थ हों। अतः प्रारम्भ में जो अमृत के समान सुखकारक होता है वही अन्त में विष के समान हो जाता है क्योंकि संसार की कोई भी वस्तु नित्य नहीं है अतः परिणाम विष युक्त होना स्वाभाविक है। ऐसा सुख राजस सुख कहलाता है।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।39।
जिस सुख में आत्मा भोग काल में तथा परिणाम में भ्रमित रहती है, मूढ़ता में रहती है, जो सुख नींद, आलस्य और प्रमाद के कारण मिलता है वह सुख तमस कहा जाता है।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः ।40।
हे अर्जुन, इस पृथ्वी में आकाश और देव लोक में तथा इनके अलावा ब्रह्म लोक तक अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो प्रकृति के इन तीन गुणों से रहित हो।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।41।
वर्णाश्रम व्यवस्था का आधार गुण हैं अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म उनके स्वभाव अर्थात तीन गुणों की भिन्न भिन्न मात्रा के अनुसार विभाजित किए गए हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।42।
मन का निग्रह करना अर्थात बुद्धि द्वारा मन इन्द्रियों को वश में करके आत्मरत होना, दम अर्थात इन्द्रियों को भटकने से बल पूर्वक रोकना; तप, शरीर मन वाणी से आत्मरत होना, बाहर और भीतर मन की पवित्रता, अपने को पीड़ा देने वाले के प्रति भी सरलता, परमात्मा के प्रति न डिगने वाली श्रद्धा, शास्त्र अध्ययन द्वारा बुद्धि को ईश्वर निमित्त करना, ईश्वर की निरन्तर खोज करना यह ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।43।
जो अपने में बलवान और वीर होते हैं, किसी भी परिस्थिति में न घबराने वाला तेज, धैर्य अर्थात कैसी मुसीबत आ जाय हर परिस्थिति में धैर्यवान होते हैं, अपने कौशल में दक्ष, युद्ध में न भागने वाले, डटकर मुकाबला करने वाले, दानवीर अर्थात मांगने वाले को तृप्त करना, प्रजापालक (ईश्वर भाव) क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।44।
कृषि करना, गाय पालना, दूध का व्यवसाय, क्रय-विक्रय अर्थात व्यापार निष्ठा से करना, उचित मुनाफा लेना और कम न तोलना वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। इस प्रकार सभी वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।45।
जो व्यक्ति अपने अपने स्वधर्म आचरण को निष्ठा से करता है उनका जीवन सरल हो जाता है क्योंकि वह अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हैं। अतः जीवन में उद्विग्नता कम हो जाती है, उसके लिए अपने कर्म में निपुणता लाना भी सरल हो जाता है और स्वभावगत अपने अपने कर्मों में लगा किस प्रकार परम सिद्धि (आत्मतत्व) को वह प्राप्त होता है, मुझसे सुन।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।46।
जिस परमात्मा से सब प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिसके एक अंश ने ही इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त किया है उस आत्मतत्व की अपने स्वाभाविक और नियत कर्मों से पूजा करनी चाहिए अर्थात प्रकृति के गुण के आधार पर मनुष्य के जो स्वाभाविक कर्म हैं उन का ईमानदारी से आचरण करना चाहिए जैसे माता का स्वाभाविक धर्म बच्चे को दूध पिलाना है। ऐसे कर्म का सरल रूप से आचरण कर जीव परम सिद्धि को प्राप्त होता है क्योंकि स्वाभाविक आचरण से जीव की बुद्धि शुद्ध हो जाती है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।47।
अपने धर्म अर्थात अपने स्वभाव में स्थित रहना ही उत्तम है। दूसरे का धर्म स्वभाव यदि श्रेष्ठ भी है तो भी दूसरे के स्वभाव को अपनाना और उसमें चलना सरलता को खो देना है। अपना स्वभाव (धर्म) गुण रहित है तो भी उसमें चलना सरल होता है, प्राकृतिक होता है, अशान्ति को जन्म नहीं देता। नीम यदि आम का स्वभाव अपना ले तो क्या होगा? प्रकृति के गुणों ने जिसको जैसा स्वभाव दिया है, तदनुसार ही उसका जन्म होता है और उसी का आचरण उसके मूल को सुरक्षित रखता है। सामान्य स्वभावगत आचरण यदि दूसरे के गुणी स्वभाव की तुलना में गुणहीन अथवा अल्प गुणी भी हो तो भी अपना स्वभाव ही अच्छा है। लोहे का गुण तभी तक है जब वह लोहा रहे यदि वह सोना बनने की इच्छा करे न वह सोना बन पाएगा तथा अपने स्वाभाविक गुणों को भी खो देगा। यही जीवन में भी होता है, अपनी प्रकृति के गुणों के आधार पर जीवन जीना सर्वश्रेष्ठ है और इससे कर्म दोष भी नहीं लगता।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।48।
अपना स्वाभाविक कर्म दोष युक्त होने पर भी उसे नहीं त्यागना चाहिए चाहे उसे करने में कष्ट हो या दुनियादारी के हिसाब से तुलना करने में वह कर्म दोष युक्त दिखायी देता हो। वैसे सभी कर्म में कुछ न कुछ परिश्रम करना पड़ता है तो फिर स्वाभाववत कर्म क्यों न किया जाय। इसी प्रकार सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं जैसे अग्नि धुएं से युक्त होती है। अतः स्वाभाविक कर्म ही उचित है।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ।49।
व्यक्ति स्वाभाविक कर्म करता हुआ सरल होता जाता है, उसे अशान्ति नहीं होती है। तत्पश्चात वह उन कर्मों के प्रति भी उदासीन होने लगता है। नियत कर्म के उपस्थित होने पर उन्हें करता है। ऐसा व्यक्ति जिसने आशा को त्याग दिया है, जो यह मेरा-मेरे के भाव से मुक्त हो गया है, जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, ज्ञान योग से जुड़ जाता है; ऐसे व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है और ज्ञान से आत्मतत्व से जुड़कर सरल रूप में अनासक्त कर्म से प्राप्त होने वाली सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात वह माया के बन्धन को काट डालता है और परम स्थिति को प्राप्त होता है।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।50।
जो स्थिति ज्ञानयोग की परम निष्ठा है अर्थात ज्ञान द्वारा किस प्रकार आत्मतत्व को मनुष्य पाता है, उस बुद्धि से युक्त होकर मनुष्य जीव भ्रम से मुक्त हुआ ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, उसे हे अर्जुन, तू संक्षेप में सुन।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।51।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त जिसे ब्रह्म की जिज्ञासा हो गयी है, जिसकी असम्भावना (परमात्मा को न मानना) और विपरीत भावना नष्ट हो गयी है। धारण शक्ति द्वारा जिसने पतिव्रता नारी की तरह मन, इन्द्रिय की क्रियाओं को संयम करके आत्मा की ओर लगा दिया है, गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द से उत्पन्न होने वाले विषयों का त्याग करके और राग (मैं और मेरा) तथा द्वेष, दूसरे के प्रति ईष्र्या और बुराई के भाव को त्याग कर दिया है।
विविक्तसेवी लघ्वाशीयतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यंसमुपाश्रितः ।52।
एकान्त और शुद्ध स्थान का सेवन करने वाला, किसी तीर्थ और तपस्थली में रहने वाला अथवा अपने घर में भी सबसे अलग होकर अपना आचरण करने वाला, हल्का नियमित भोजन करने वाला, मन, वाणी और शरीर जिसने वश में कर लिया है, निरन्तर आत्म ध्यान में लगा, ऊँ को व्यवहार में स्मरण करता हुआ, निरन्तर परिवार, समाज, संसार से वैराग्य अर्थात उदासीन भाव से रहने वाला ।
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।53।
अहंकार अर्थात शरीर और कर्तापन के अभिमान से रहित अपने बल का गुमान न करने वाला परमात्मा पर सदा आश्रित, पाखण्ड रहित, दिखावे के लिए कोई काम न करने वाला, काम-क्रोध से मुक्त पुरुष, धन, सम्पत्ति, परिवार का संग्रह न करने वाला, ममता रहित, मै-मेरा के भाव से परे, शान्त अर्थात जिसकी कामनायें शान्त हो गयी हैं, आत्मतत्व रूपी परब्रह्म को प्राप्त होने के लिए पात्र होता है।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।54।
जो ब्रह्म भूत हो गया हो अर्थात जिसने स्वरूप स्थिति प्राप्त कर ली है वह सदा आनन्द में रहता है। जो सदा आनन्द में है, विश्वात्मा हो गया है, उसके लिए शोक, आकांक्षा सब निरर्थक हो जाते हैं। ऐसा आत्म स्थित योगी किसी के लिए शोक नहीं करता, किसी भी वस्तु, प्रतिष्ठा, पद की इच्छा नहीं करता क्योंकि वह परम स्थिति को प्राप्त हो चुका है। ऐसा महात्मा समस्त प्राणियों में समभाव रखते हुए मेरी परम भक्ति अर्थात स्वरूप को प्राप्त होता है।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।55।
मेरी भक्ति अर्थात निज स्वरूप में स्थित होकर वह मुझ परमतत्व आत्मा को, मैं जो हूँ, और जितना हूँ ठीक वैसा तत्व से जान लेता है और मुझको तत्व से जानकर तत्काल मेरे आत्मतत्व में प्रवेश पा लेता है अर्थात मुझे परम शुद्ध ज्ञान रूप समझता है और आत्मा के परम शुद्ध ज्ञान रूप में स्थित हो जाता है। यदि आनन्द स्वरूप समझता है तो परम आनन्द में समा जाता है, परम शान्ति स्वरूप हो जाता है क्योंकि मैं आत्मा ही विशुद्ध पूर्ण ज्ञान हूँ, मैं ही आनन्द हूँ, मैं ही परम शान्ति हूँ ।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।56।
मेरे आश्रित अर्थात जो आत्म स्थित योगी है वह सदा सभी कर्मों को करता हुआ मेरे परम विशुद्ध ज्ञान के प्रसाद से सनातन, अव्यक्त, नाश रहित परम पद जो सब को अपने ज्ञान से प्रकाशित करता है, को प्राप्त होता है
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।57।
हे अर्जुन, तुझे सभी कर्मों का सन्यास अर्थात त्याग मेरे आत्म स्वभाव के लिए करना चाहिए। सब कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर प्रत्येक स्थिति हानि लाभ, जय पराजय, सुख दुःख में समान होकर सदा आत्मरत होकर आत्म स्थित हो।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि 58।
इस प्रकार कर्म योग और कर्म सन्यास को जानकर सदा मुझ आत्मा में अपने मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को लगा। इससे तुझ पर आत्मा (मेरी) की कृपा होगी और तू माया के बन्धन रूपी दुर्ग से अनायास पार हो जायेगा और यदि तेरा अहं भाव अभी भी नष्ट नहीं हुआ, तू देह में अभी आसक्त है और जो ज्ञान योग, कर्म योग, समत्वयोग, विभूति योग, त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुणों का विवेचन आदि तुझे मेरे द्वारा बताये गये हैं, उसे मूढ़ता के कारण अपने चित्त में धारण नहीं करेगा तो निश्चित ही तेरा पतन होगा।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।59।
हे अर्जुन, तू यह भी समझ ले कि मेरे उपदेश पर तू ध्यान नहीं देगा, अपने अहंकार में ही डटा रहेगा और मैं युद्ध भी नहीं करूंगा, इस प्रकार क्षत्रिय धर्म के विपरीत स्वभाव आचरण करेगा तो यह तेरा स्वभाव मिथ्या होगा। तेरी प्रकृति क्षत्रिय है, लोक कल्याण और युद्ध में शस्त्र उठाना तेरी प्रकृति में है अतः तुझे न चाहते हुए भी युद्ध करना पड़ेगा।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।60।
हे कुन्ती पुत्र अर्जुन, तू बुद्धि भ्रम अथवा मूढ़ता के कारण जिस कर्म को नहीं करना चाहता उसको अपनी प्रकृति के कारण कर्म से बंधा हुआ परवश करेगा क्योंकि तू जन्म जन्मान्तर क्षत्रिय प्रकृति लेकर पैदा हुआ है अतः यहाँ युद्ध तुझे हर हाल में करना ही पडे़गा।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ।61।
हे अर्जुन, तू इस बात को भली प्रकार समझ ले कि मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है तदनुसार उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता हूँ।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।62।
इसलिए तू यह समझ ले कि सबकी गति अव्यक्त परमेश्वर यह आत्मा है। अतः इस आत्मा की शरण में जा, आत्मा की शरण में अंह भाव का त्याग कर निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से सतत् स्वरूपरत हुआ और आत्म स्थित होकर ही तू परम शान्ति और परम स्थिति को प्राप्त होगा।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।63।
श्री कृष्ण चन्द्र अर्जुन से बोले:- इस परम गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय ज्ञान जो मैंने तुझे कह दिया है, वह गोपनीय इसलिए है कि यह प्रत्येक मनुष्य की समझ में नहीं आ सकता, दूसरा इसे वही जान सकता है जो स्वभाव गत कर्मों का अभ्यास करता हुआ योग सिद्धि के लिए प्रयासरत परम शुचिवान, विद्यावान है। इसलिए इस ज्ञान को, जो उपदेश के माध्यम से दिया है को जानकर, तू भली प्रकार विचार करके, यदि तेरी प्रकृति इसे स्वीकारती है तो तू इस ज्ञान का आचरण कर और यदि तेरे अन्दर अभी भी मूढ़ता भरी है तो यह पत्थर में धान उगाने की तरह निरर्थक है। अतः जैसा चाहता है वैसा कर।
सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।64।
हे अर्जुन, सम्पूर्ण गोपनीय में अति गोपनीय मेरे परम रहस्य युक्त वचन को तू फिर से सुन। तू मेरा अति प्रिय है, अनेक जन्मों से तेरा मेरा नाता है, तू देवी सम्पदा को लेकर जन्मा है, मुझमें निष्ठा के कारण तू मुझे अति प्रिय है, अतः फिर से परम हितकारक वचन सुन।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।65।
मुझमें मन वाला हो अर्थात मेरे आत्मतत्व परमात्म स्वरूप में अपना मन समस्त इन्द्रियों सहित स्थापित कर। मेरा भक्त बन अर्थात निरन्तर अपने स्वरूप का अनुसंधान कर, मेरा भजन कर। सब कर्मों में यज्ञ स्वरूप परमात्मा मैं हूँ अतः समस्त कर्मों को मेरे अर्पण कर। इस सृष्टि में आत्मतत्व से बढ़कर और श्रेयकर कुछ भी नही है अतः आत्मा की परम स्थिति को जानकर सब
देवों के देव, सब यज्ञों के स्वामी मुझ आत्मा को नमस्कार कर। सदा आत्म चिन्तन करता हुआ, आत्मा में रमण करता हुआ, तू सब कर्म बन्धनों से मुक्त होकर आत्म स्वरूप हो जायेगा। तुझे परम स्थिति स्वाभाविक रूप से प्राप्त होगी। यहाँ एक रहस्य और भी है, मेरे में अनन्यता से सभी सात्विक सम्पदा तुझमें बिना प्रयास के आ जायेंगी, मन इन्द्रियों का निग्रह, समत्व भाव, निष्काम कर्म सभी स्वतः सिद्ध हो जायेंगे, यह ही परम सत्य है। तुझसे मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि तू स्वभाव से मुझ परमात्मतत्व से जुड़ा है अतः मुझे प्रिय है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।66।
सभी धर्मों को छोड़कर मुझ एक की शरण में जा अर्थात मुझ एक आत्मा की शरण में जा. मैं ही तेरी आत्मा हूँ मैं ही विश्वात्मा हूँ. यहाँ वृज शब्द का प्रयोग इसी कारण से किया है. श्री भगवान् कहते हैं जब तक तू मुझे और अपने को अलग अलग समझेगा तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता. तू यह समझ ले मैं समस्त प्राणियों की आत्मा हूँ. भगवद्गीता के दसवें अध्याय में श्री भगवान् कहते हैं 'अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः' 20-10. अतः आत्मा जो एक है जिसमें और मुझमें कोइ भिन्नता नहीं है इसलिए यहाँ मामेकं शब्द का प्रयोग हुआ है. इसी आत्मतत्त्व को दूसरे अध्याय में विस्तार से समझाया गया है. इसी एक आत्मा की शरण में जाना ही गीता शास्त्र का निचोड़ है. परमात्मा, धर्म (स्वभाव) स्थापना के लिए जन्म लेते हैं। जगह जगह धर्म (स्वभाव) पालन का उपदेश दिया और यहाँ कहते हैं, सभी धर्मों को छोड़कर अर्थात अपने गुणों का गुमान छोड़कर, अपने इन्द्रिय जनित ज्ञान का मोह छोड़कर, अपनी कमी का संग छोड़कर, अपने श्रेष्ठ कर्म का भी मान छोड़कर अर्थात जो भी तेरा प्रकृति जन्य स्वभाव है उसे छोड़कर, मुझ आत्मरूप परमात्मा की शरण में जा। स्वभाव, कर्म, यज्ञ, धर्म सभी कुछ छोड़ दे केवल आत्मतत्व को समझ ले और आत्मरत हो जा। आत्मरत होते ही तेरे कर्म बन्धन स्वयं क्षय हो जायेंगे। तू इस विषय में न सोच न चिन्ता कर।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।67।
इन उपदेशों को किसी भी काल में न तो तप रहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति रहित मनुष्य से, न किसी को जबरदस्ती सुनाना चाहिए, जो आत्मा परमात्मा एंव ब्रह्मज्ञानी में दोष दृष्टि रखता है उससे भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि इन सबसे कहने का परिणाम रेतीली जमीन में बिना पानी के फसल पैदा करना है।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।68।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।69।
जो पुरुष मुझ आत्म स्वरूप परमात्मा में परम प्रेम करता है, सदा आत्मरत रहता है, आत्मा का अनुसंधान करता है, वह इस परम रहस्य युक्त ज्ञान को आत्म ज्ञान के जिज्ञासु भक्तों से कहेगा वह मुझे प्राप्त होगा अर्थात स्वरूप स्थिति को प्राप्त होगा इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। यह निश्चयात्मक बात है ऐसे मनुष्य से अधिक इस संसार में कोई भी मनुष्य मेरा प्रिय करने वाला नहीं है तथा ऐसा आत्मरत योगी जो मेरे भक्तों को आत्म तत्व इस गीतामृत को देगा उसका जन्म इस पृथ्वी में सदा दुर्लभ है।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।70।
इस प्रकार तुम्हारे मेरे बीच में जो संवाद हुआ है वह संवाद धर्ममय है। यह संवाद प्रकृति (जन्म स्वभाव) को जानने उसमें स्थित रहने उसमें विजय पाने के लिए और आत्म स्वभाव को भी जानने उसमें स्थित रहने और उसे अन्तिम स्थिति जानकर प्राप्त करने के लिए हुआ है। जो भी इस तेरे मेरे सम्वाद का अध्ययन करेगा उसके द्वारा ज्ञान स्वरूप परमात्मा ज्ञान यज्ञ से पूजित होंगे। यह मेरा निश्चय मत है।
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ।71।
जो भी मनुष्य दैवी सम्पदा से युक्त होकर श्रद्धा से इस संवाद का श्रवण करेगा, उसके कर्म बन्धन क्षय होते जायेंगे और कर्म बन्धन से मुक्त हुआ वह देह त्याग के पश्चात श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा तथा पुनः योगभ्रष्ट पुरुष योगियों अथवा श्रेष्ठ विद्यावानों के घर में जन्म लेगा।
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।72।
हे अर्जुन, इस धर्म उपदेश को तूने क्या एकाग्र चित्त होकर सुना क्या तेरी मूढ़ता, अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया, क्या तेरी क्लैव्यता समाप्त हो गयी क्या तू स्वरूप स्थिति को समझ गया है क्या तेरा जीव भाव समाप्त हो गया है, क्या तू ब्रह्म भाव में स्थित हो गया है?
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ।73।
हे अच्युत, आपकी कृपा से जो आपने मुझे आत्म ज्ञान दिया और कृपा कर आत्मा का विस्तार समझाया तथा प्रत्यक्ष दिखाया उससे मेरा अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया है, मुझे जन्म जन्म की सुधि आ गयी है, मेरे सम्पूर्ण संशय नष्ट हो गये हैं। हे भगवान आप स्वयं आत्मा हैं, परमात्मा हैं, परम योगी हैं, आपकी आज्ञा पालन ही मेरा परम श्रेय है। मैं आपकी आज्ञा पालन करूंगा।
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।74।
हे अच्युत, आपकी कृपा से जो आपने मुझे आत्म ज्ञान दिया और कृपा कर आत्मा का विस्तार समझाया तथा प्रत्यक्ष दिखाया उससे मेरा अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया है, मुझे जन्म जन्म की सुधि आ गयी है, मेरे सम्पूर्ण संशय नष्ट हो गये हैं। हे भगवान आप स्वयं आत्मा हैं, परमात्मा हैं, परम योगी हैं, आपकी आज्ञा पालन ही मेरा परम श्रेय है। मैं आपकी आज्ञा पालन करूंगा।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ।75।
मैं महर्षि वेद व्यास जी का परम ऋणी एवं कृतज्ञ हूँ जिनकी कृपा और ब्रह्म तेज से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हुयी और मैं भगवान श्री कृष्ण चन्द्र के उपदेश को सुन पाया और उनकी कृपा से ही आत्मा के विराट स्वरूप को प्रत्यक्ष देख पाया।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ।76।
हे राजन, मैं भगवान श्री कृष्ण और महात्मा अर्जुन के इस परम कल्याण कारक धर्म संवाद को पुनः पुनः स्मरण करके बार बार हर्षित हो रहा हूँ, मेरे आनन्द का पारावार नहीं है। मैं इस उपदेश को सुनकर स्वयं आत्मरत होकर आत्म स्थित हो गया हूँ, यहाँ केवल आनन्द ही आनन्द है।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ।77।
हे राजन, श्री हरि कृष्ण चन्द्र के अत्यन्त विलक्षण आत्म रूप जो अत्यन्त विराट था जिसका न कोई ओर था न छोर, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों को व्याप्त कर उससे भी ऊपर था, जिसमें सृष्टि की सभी विभूतियाँ परा अपरा प्रकृति समायी थी, युद्ध और उसका परिणाम समाया था को पुनः पुनः स्मरण कर मुझे महान आश्चर्य होता है और मैं बार बार हर्षित होता हूँ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।78।
अतः हे राजन, आप यह निश्चयपूर्वक जान लें कि पाण्डवों की ओर विशुद्ध ज्ञान स्वरूप पूर्ण परमात्मा श्री कृष्ण चन्द्र हैं। वह परमात्मतत्व ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव के भी स्वामी हैं, परम अव्यक्त से भी अव्यक्त हैं। परा, अपरा प्रकृति भी जिससे जन्मी है उन्हीं की महात्मा अर्जुन पर असीम कृपा और स्नेह है तथा उनके उपदेश और आत्म स्वरूप दर्शन से अर्जुन को अपनी स्मृति प्राप्त हो गयी है, वह प्रकृतिस्थ हो गया है। अतः आप यह समझ लें कि जहाँ भगवान हैं, जहाँ अर्जुन हैं, वहीं विजय है, वहीं सौभाग्य है, वहीं सफलता है, वहीं कार्य सिद्ध करने की युक्ति है, वहीं लक्ष्मी है, गौरव है, दैवी गुण है, प्रतिष्ठा है, यही मेरा मत है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः18
ॐ तत् सत्
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