Wednesday, September 21, 2011

गीता - आत्म गीता/ATMA GITA - अध्याय १८ - मोक्षसन्न्यासयोग (हिन्दी भाष्य ) / भाष्यकार बसंत



ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय इनको तू कर्म का बीज जान अर्थात कर्म की प्रेरणा इन से ही होती है।
अपना स्वाभाविक कर्म दोष युक्त होने पर भी उसे नहीं त्यागना चाहिए।
नियत कर्म अवश्य करने चाहिए। यदि मूढ़ता अथवा अज्ञान के कारण नियत कर्म का त्याग कर देता है, तो वह त्याग तामस त्याग है।              
               

                                 आत्मगीता  -   भाष्यकार- प्रो. बसन्त प्रभात जोशी
                                                               

                                       अथ अष्टादशोऽध्यायःमोक्षसन्न्यासयोग


अर्जुन उवाच

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ।1।

अर्जुन बोले हे भगवान, सन्यास और त्याग लगभग एक से समझ में आते हैं परन्तु आपने उनकी चर्चा अलग-अलग की है। उनके प्रथक-प्रथक तत्व को बताने की कृपा करें। क्या दोनों एक हैं अथवा अलग-अलग हैं?

श्रीभगवानुवाच

काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।2।

श्री भगवान बोले, हे अर्जुन, दान सम्बन्धी अनेक कर्म हैं जो फल की इच्छा से किये जाते हैं जैसे अन्न, धन, भूमि, गोदान, धर्मशाला, कुँआ, तालाब, मन्दिर, पाठशाला  आदि बनाना और इन सभी का फल अवश्य मिलता है और उसे भोगना भी पड़ता है पर जो सन्यास अर्थात ज्ञान मार्ग का साधक है उसे इन दान सम्बन्धी काम्य कर्म का त्याग कर देना चाहिए। काम्य कर्म के त्याग से मन की वासना का नाश होता है परन्तु जो कर्म स्वाभाविक हैं उन्हें तो करना देह धारी के लिए आवश्यक है अतः उन कर्मों को करते हुए उनके फल का त्याग, ‘त्याग‘ कहलाता है अर्थात फल का त्याग, त्याग है और काम्य कर्म का त्याग सन्यास है।

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।3।

कई मनीषि कहते हैं सभी कर्म दोष युक्त हैं और त्यागने योग्य हैं। अन्य मनीषि कहते हैं परमात्मा के निमित्त कर्म, दान, तप कर्म त्यागने योग्य नहीं है। इस विषय में भिन्न भिन्न मत हैं, अतः तू मेरा निश्चय सुन।

निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।4।

हे अर्जुन, त्याग और सन्यास में पहले तू त्याग के बार में सुन। त्याग तीन प्रकार का होता है, सात्विक, राजस, और तामसिक।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ।5।

परमात्मा निमित्त कर्म, दान, तप त्यागने योग्य नहीं हैं वह अवश्य करने चाहिए। जब आत्म ज्ञान हो जाय तब बात दूसरी है तब तक इन सबका मनोयोग से आचरण करना चाहिए। क्योंकि परमात्मा के निमित्त कर्म, दान, तप यह सत्कर्म साधक को पवित्र करने वाले हैं। आत्म ज्ञान से पहले इन सत्कर्मों को डूबते को तिनके का सहारा मान करना चाहिए।

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌ ।6।

हे पार्थ परमात्मा के निमित्त कर्म, दान, तप तथा अन्य स्वाभाविक कर्मों को आसक्ति और फल त्याग करके अवश्य करना चाहिए। उसमें अहंकार का भाव नहीं होना चाहिए। जो कर्म उपस्थित हो उसे आसक्ति और फल का त्याग करते हुए करना चाहिए। अनासक्त हुआ ऐसा पुरुष कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ।7।

नियत कर्म अवश्य करने चाहिए। यदि मूढ़ता अथवा अज्ञान के कारण नियत कर्म का त्याग कर देता है, तो वह त्याग तामस त्याग है। बीमार व्यक्ति औषधि का अपनी मूर्खता व हठ से त्याग कर दे तो वह तामस त्याग है।

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ।8।

सभी कर्म दुख का कारण है और कर्म की कठिनाई से घबरा कर, शारीरिक श्रम से घबराकर कर्म छोड़ दे तो ऐसा त्याग राजस त्याग कहलाता है जैसे विद्यार्थी मेहनत के भय से पढ़ना छोड़ दे।

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ।9।

जिस कर्म की शास्त्र आज्ञा देते हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिसका आचरण करते हैं, जो विधि सम्मत है ऐसे कर्म को कर्तव्य समझकर निष्काम भाव से करना चाहिए अर्थात आसक्ति और फल का त्याग कर देना चाहिए। यही सात्विक त्याग कहा जाता है।

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।10।

प्रारब्ध वश यदि बुरी घटना हो जाय तो चिन्ता नहीं करता, अच्छी घटना हो जाय तो प्रसन्न नहीं होता अर्थात शुभ-अशुभ के उपस्थित होने पर समभाव में स्थित रहता है, जो अहंभाव, कर्ता भाव से मुक्त हो जाता है, जिसके समस्त संशय मिट गये हैं, ऐसा सतोगुणी पुरुष सच्चा त्यागी है क्योंकि उसकी बुद्धि का निश्चय सही है।

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ।11।

किसी भी शरीर धारी के लिए अकर्म रत होना अर्थात सम्पूर्णता से सभी कर्मों को छोड़ देना सम्भव नहीं है क्योंकि सांस लेना, देखना, सुनना, भोजन करना, शौच  आदि का त्याग नहीं किया जा सकता है। अतः जिसने मन से कर्म फल का त्याग कर दिया है जो निष्काम भाव से कर्म करता है वही त्यागी है।

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌ ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्‌ ।12।

सकाम कर्म अर्थात फल की इच्छा से जो कर्म किया जाता है वह तीन प्रकार का होता है अच्छा, बुरा और मिला हुआ और शरीर छोड़ने के बाद भी तीन प्रकार का फल अवश्य होता है। जैसा बीज वैसा फल परन्तु जो मनुष्य कर्मफल में आसक्ति का त्याग कर देता है, जिसके संकल्प विकल्प समाप्त हो गये हैं, जहाँ कर्तापन का भाव समाप्त हो जाता है वहाँ वासना समाप्त हो जाती है, उसके संसार, उसके कर्मों से, मन का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। अतः वह कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌ ।13।

हे अर्जुन, सभी कर्मों के होने के लिए ये पांच कारण सांख्य शास्त्र में बताये हैं, जो सांख्य शास्त्र यह बताता है कि कर्मों का अन्त किस प्रकार किया जा सकता है।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌ ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌ ।14।

हे अर्जुन, तू कर्मों के पांच कारण को जान। अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।

शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।15।

मनुष्य मन वाणी और शरीर से शास्त्र सम्मत अथवा विपरीत जो कुछ भी आचरण करता है, कर्म करता है,उसके उत्तरदायी यह पांच शरीर, जीवात्मा (जीव बुद्धि), इन्द्रियां, चेष्टा और प्रारब्ध कर्म हैं।

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।16।

यह होने पर भी जो मनुष्य भ्रमित बुद्धि के कारण, अज्ञान के कारण, कर्मों के होने में केवल आत्मा को (देह बुद्धि के कारण) कर्ता समझता है उसकी मति ठीक नहीं है वह सत्य नहीं जानता।

यस्य नाहङ्‍कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।17।

परन्तु जो इस भाव को रखता है कि मैं अकर्ता हूँ, आत्मा को अकर्ता समझता है उसकी बुद्धि संसार में लिप्त नहीं होती। वह सदा आत्मरत योगी आत्मा को सर्वत्र तथा सभी को आत्मा में स्थित देखता है। ऐसा मनुष्य यदि सब लोको को नष्ट कर दे, मार दे तो भी वास्तव में न वह मारता है, न कर्म बन्धन से बंधता है। जब कर्ता का भाव ही नहीं, तो कौन कर्म, किसके द्वारा कर्म।

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ।18।

ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय इनको तू कर्म का बीज जान अर्थात कर्म की प्रेरणा इन से ही होती है। ज्ञाता जो जानता है अर्थात जीव ज्ञाता है, ज्ञान जिसके द्वारा जाना जाये, ज्ञेय वस्तु अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध द्वारा जानने में आने वाली वस्तु। जीव शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की ओर दौड़ता है। कर्ता, करण, क्रिया यह तीन कर्म के अंग हैं। किसी कार्य को किया जाय अथवा नहीं; जब ज्ञाता इन्द्रियों द्वारा उस ओर बढ़ता है तो कर्ता कहलाता है। जब इन्द्रियों से औजार की तरह काम लेता है तो करण। इन्द्रियों के लिए कर्ता, जो क्रिया उत्पन्न करता है वह कर्म हैं जैसे चलना, बोलना आदि।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ।19।

इस विषय में सांख्य शास्त्र में ज्ञान, कर्म और कर्ता को गुणों के अनुसार तीन तीन प्रकार का बताया गया है। सृष्टि के सभी जीवों और उनके कार्यों को गुणों के आधार पर तीन तीन भागों में विभाजित किया है।

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।20।

जिस ज्ञान द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय उसी में लीन हो जाते हैं, उस समय सम्पूर्ण भूतों में अविनाशी परमतत्व आत्मा को देखता है और यह देखता है कि वह परमतत्व ही समस्त भूतों में अलग अलग रूप से स्थित है, यद्यपि वह एक ही है। वह ज्ञान सात्विक ज्ञान है।

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌ ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌ ।21।

जिस ज्ञान के द्वारा सब प्राणियों में जो सत्त्व, रज, तम से उत्पन्न भिन्न भिन्न प्रकार के भाव हैं उनको अलग अलग देखता है, सांसारिक बुद्धि से देखता है और प्रत्येक सांसारिक ज्ञान को ही सर्वोपरि समझता है वह ज्ञान राजस ज्ञान है।

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।22।

जिस ज्ञान द्वारा किस कार्य को करना है, बिना विवेक व मूढ़ता से किया जाता है, भोजन खाना है, चाहे सड़ा है, दुर्गन्ध युक्त है, जिसे अपने किसी कार्य में अच्छे बुरे की समझ नहीं है जैसे मक्खी अच्छी बुरी जगह बैठती है, ऐसे ही जिसके कर्म हैं, बिना युक्ति के, बिना विवेक के जिस कार्य का कुछ अर्थ नहीं है, ऐसा ज्ञान जो अज्ञान है, भ्रमित कर देता है वह तामस ज्ञान कहलाता है।


नियतं सङ्‍गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ।23।

जो शास्त्र विधि से नियत है, उन्हें कर्तापन के अभिमान से बिना देह बुद्धि के, बिना किसी आशा और फल के, बिना किसी कामना के, सभी प्राणियों का हित करने के लिए किया जाता है वह कर्म सात्विक कर्म कहलाता है।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्‍कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌ ।24।

जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है जिसमें यह इच्छा होती है चाहे कितना समय मेहनत करनी पड़े मैं इसे हर हालत में करके रहूंगा, जहाँ किसी कर्म से किसी विशेष फल की इच्छा होती है, जो कर्म अहंकार से पाखण्ड करते हुए अपने मान सम्मान, दिखाने के लिए किया जाता है वह कर्म राजस कर्म कहलाता है।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।25।

जो कर्म करने से किसी फल की प्राप्ति नहीं होती है, जो कर्म उसका परिणाम जाने बिना कि इस कार्य से कितनी हिंसा होगी, कितनी हानि होगी केवल मूढ़ता वश किया जाता है, जहाँ अपनी सामर्थ्य का भी विचार नहीं किया जाता कि इस कार्य को मैं कर भी सकता हूँ या नहीं, केवल अज्ञान से किया जाता है और परिणाम में हानि के अतिरिक्त कुछ नहीं आता है वह कर्म तामस कर्म कहा जाता है।

मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।26।

जो कर्ता आसक्ति रहित है, गुणों का संग नही करता है, जो अहंकार रहित है, धैर्य और उत्साह से युक्त है, कार्य सफल हो अथवा असफल वह विकार रहित रहता है अर्थात सफल होने में प्रसन्न और असफल होने में दुखी नहीं होता ऐसा कर्ता सात्विक कर्ता कहा जाता है।

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।27।

जो कर्म आसक्ति से युक्त है, कर्म फल की इच्छा से कर्म करता है। लोभी है धन, जमीन, पद, प्रतिष्ठा का इच्छुक है दूसरों को कष्ट देने का स्वभाव रखता है अर्थात अहंकारी है, पाखण्डी है, अपने आचरण से अशुद्ध है जो कार्य के सफल होने पर प्रसन्न और असफल होने पर दुखी होता है, ऐसा कर्ता राजस कहा गया है।

आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।28।


जो कर्ता उस कार्य के लायक ही नहीं है, जड़ मूर्ख है, किम कर्तव्य विमूढ़ है, धूर्त है दूसरे की जीविका का नाश करने वाला है, सदा विषाद से ग्रस्त रहता है, आलसी है और साधारण कार्य जो तत्काल निपटाया जा सकता है, कल पर छोड़ने वाला है, ऐसा कर्ता तामस कर्ता कहा जाता है।

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ।29।

हे अर्जुन, इस प्रकार बुद्धि और धृति के भी सत्त्व, रज, तम गुणों के आधार पर तीन प्रकार के भेद सम्पूर्णता से विभाग पूर्वक सुन।

प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।30।

हे अर्जुन, पहले मैं तुझे बुद्धि के बारे में बताता हूँ। जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग (अर्थात संसार में रहते हुए अनासक्त रूप से अपने स्वरूप की ओर प्रवृत्त होता है) और निवृत्ति मार्ग को जानती है (अर्थात विशुद्ध ज्ञान स्वरूप पूर्ण परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से स्थित हो, संसार से उपराम होकर रहता है जैसे सनक सनकादि), क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए अर्थात कर्म, अकर्म, विकर्म को भली भांति जानती है, भय और अभय अर्थात जो भय रहित है, जिससे सभी प्राणी अभय पाते हैं तथा जो बन्धन और मोक्ष को जानती है अर्थात देह भाव, आसक्ति, संकल्प, कर्मफल की इच्छा बन्धन है और अनासक्त और समत्व भाव मुक्ति है, इसे यथार्थ से जानती है वह बुद्धि सात्विक है।

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।31।

हे अर्जुन, जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म के विषय में नहीं जानता कि क्या कर्म है, क्या अकर्म है, क्या विकर्म है ? जिस बुद्धि को यथार्थ का ज्ञान नहीं है, जो बुद्धि बिना सोचे समझे अच्छे और बुरे का आचरण करती है, वह राजसी बुद्धि है।

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।32।

हे अर्जुन, तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को धर्म मान लेती है। जो दिन को रात समझ ले, उस बुद्धि में मूढ़ता भरी है। इस कारण सम्पूर्ण पदार्थों को विपरीत मान लेती है। औषधि उसे जहर दिखायी देती है, जो पदार्थ उसके लिए जहर हो वह औषधि दिखायी दे, वह बुद्धि तामसी है।

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।33।

हे अर्जुन, पतिव्रता स्त्री की तरह न डिगने वाली अव्यभिचारिणी, जिस धारण शक्ति द्वारा मनुष्य मन, प्राण, इन्द्रियों की क्रियाओं का निग्रह कर आत्मयोग में स्थित होता है, वह धारणा शक्ति सात्विक है।

यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्‍गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।34।

राजस धारणा शक्ति को रखने वाला मनुष्य फल की इच्छा रखता है। अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ, काम को धारण करता है। अपनी बुद्धि और फायदे के लिए साहस और उत्साह से कार्य और व्यापार करता है।

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।35।

तमस धारणा शक्ति का व्यक्ति अत्यन्त नीच गुणों से युक्त होता है। उसकी बुद्धि अधम होती है वह सदा नींद, भय, चिन्ता, दुःख और मद अर्थात उन्मत्तता जैसे शराबी मद में बुद्धि से अन्धा हो जाता है; को नहीं छोड़ता, ऐसा व्यक्ति नींद में गया तो सोता ही रहता है, हमेशा विषाद में रहता है, शोक उसे नहीं छोड़ता और अवसाद की बीमारी से ग्रस्त रहता है।

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ।36।

हे अर्जुन, अब तू सुख के विषय में सुन। यह भी गुणों के आधार पर तीन तरह का होता है। जिस समय मनुष्य अपनी आत्मा से मिलने के लए अभ्यास करता है, उस अभ्यास अर्थात भजन, कीर्तन, मनन, ध्यान आदि द्वारा आत्मरत होता है और आत्मरस को महसूस करता है, जिसे प्राप्त होकर दुःखों का अन्त हो जाता है।

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌ ।37।

ऐसा सुख प्रारम्भ में विष के समान प्रतीत होता है क्योंकि मन इन्द्रियाँ आदि बाहर की ओर भागते हैं। विषय उनके प्रिय हैं, उनको रोककर, जो अज्ञात है, निराकार है की ओर ले जाना, उसके लिए संसार की विषय वासना छोड़ना, प्रारम्भ में विष की तरह कड़ुवा होता है जैसे बच्चे को पढ़ना विष तुल्य लगता है परन्तु विद्या का परिणाम हमेशा शुभ होता है। इस प्रकार जब आत्मरस मिलने लगता है और आत्मरस में वह डूबने लगता है तब उसे अपना निश्चय सही लगता है क्योंकि परिणाम में से अमृत के तुल्य आनन्द मिलता है। यह आत्मा की ओर बुद्धि से उत्पन्न होने वाला सुख सात्विक सुख कहलाता है।

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌ ।38।

जिस सुख का कारण विषय और इन्द्रियों का संयोग है वह विषय जब मिलता है तो अहं भी तुष्ट होता है, मन भी तुष्ट होता है, इन्द्रियाँ भी तुष्ट होती हैं परन्तु यदि नही मिलता तो वही विषय घोर अशान्ति देता है। ऐसा भी नहीं कि वह विषय बार-बार मिले और यदि मिले तो फिर पहले की तरह मन, इन्द्रियां, उस विषय को भोगने में समर्थ हों। अतः प्रारम्भ में जो अमृत के समान सुखकारक होता है वही अन्त में विष के समान हो जाता है क्योंकि संसार की कोई भी वस्तु नित्य नहीं है अतः परिणाम विष युक्त होना स्वाभाविक है। ऐसा सुख राजस सुख कहलाता है।

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।39।

जिस सुख में आत्मा भोग काल में तथा परिणाम में भ्रमित रहती है, मूढ़ता में रहती है, जो सुख नींद, आलस्य और प्रमाद के कारण मिलता है वह सुख तमस कहा जाता है।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः ।40।

हे अर्जुन, इस पृथ्वी में आकाश और देव लोक में तथा इनके अलावा ब्रह्म लोक तक अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो प्रकृति के इन तीन गुणों से रहित हो।

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।41।

वर्णाश्रम व्यवस्था का आधार गुण हैं अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म उनके स्वभाव अर्थात तीन गुणों की भिन्न भिन्न मात्रा के अनुसार विभाजित किए गए हैं।

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ।42।

मन का निग्रह करना अर्थात बुद्धि द्वारा मन इन्द्रियों को वश में करके आत्मरत होना, दम अर्थात इन्द्रियों को भटकने से बल पूर्वक रोकना; तप, शरीर मन वाणी से आत्मरत होना, बाहर और भीतर मन की पवित्रता, अपने को पीड़ा देने वाले के प्रति भी सरलता, परमात्मा के प्रति न डिगने वाली श्रद्धा, शास्त्र अध्ययन द्वारा बुद्धि को ईश्वर निमित्त करना, ईश्वर की निरन्तर खोज करना यह ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌ ।43।

जो अपने में बलवान और वीर होते हैं, किसी भी परिस्थिति में न घबराने वाला तेज, धैर्य अर्थात कैसी मुसीबत आ जाय हर परिस्थिति में धैर्यवान होते हैं, अपने कौशल में दक्ष, युद्ध में न भागने वाले, डटकर मुकाबला करने वाले, दानवीर अर्थात मांगने वाले को तृप्त करना, प्रजापालक (ईश्वर भाव) क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌ ।44।

कृषि करना, गाय पालना, दूध का व्यवसाय, क्रय-विक्रय अर्थात व्यापार निष्ठा से करना, उचित मुनाफा लेना और कम न तोलना वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। इस प्रकार सभी वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।45।

जो व्यक्ति अपने अपने स्वधर्म आचरण को निष्ठा से करता है उनका जीवन सरल हो जाता है क्योंकि वह अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हैं। अतः जीवन में उद्विग्नता कम हो जाती है, उसके लिए अपने कर्म में निपुणता लाना भी सरल हो जाता है और स्वभावगत अपने अपने कर्मों में लगा किस प्रकार परम सिद्धि (आत्मतत्व) को वह प्राप्त होता है, मुझसे सुन।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।46।

जिस परमात्मा से सब प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिसके एक अंश ने ही इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त किया है उस आत्मतत्व की अपने स्वाभाविक और नियत कर्मों से पूजा करनी चाहिए अर्थात प्रकृति के गुण के आधार पर मनुष्य के जो स्वाभाविक कर्म हैं उन का ईमानदारी से आचरण करना चाहिए जैसे माता का स्वाभाविक धर्म बच्चे को दूध पिलाना है। ऐसे कर्म का सरल रूप से आचरण कर जीव परम सिद्धि को प्राप्त होता है क्योंकि स्वाभाविक आचरण से जीव की बुद्धि शुद्ध हो जाती है।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ।47।

अपने धर्म अर्थात अपने स्वभाव में स्थित रहना ही उत्तम है। दूसरे का धर्म स्वभाव यदि श्रेष्ठ भी है तो भी दूसरे के स्वभाव को अपनाना और उसमें चलना सरलता को खो देना है। अपना स्वभाव (धर्म) गुण रहित है तो भी उसमें चलना सरल होता है, प्राकृतिक होता है, अशान्ति को जन्म नहीं देता। नीम यदि आम का स्वभाव अपना ले तो क्या होगा? प्रकृति के गुणों ने जिसको जैसा स्वभाव दिया है, तदनुसार ही उसका जन्म होता है और उसी का आचरण उसके मूल को सुरक्षित रखता है। सामान्य स्वभावगत आचरण यदि दूसरे के गुणी स्वभाव की तुलना में गुणहीन अथवा अल्प गुणी भी हो तो भी अपना स्वभाव ही अच्छा है। लोहे का गुण तभी तक है जब वह लोहा रहे यदि वह सोना बनने की इच्छा करे न वह सोना बन पाएगा तथा अपने स्वाभाविक गुणों को भी खो देगा। यही जीवन में भी होता है, अपनी प्रकृति के गुणों के आधार पर जीवन जीना सर्वश्रेष्ठ है और इससे कर्म दोष भी नहीं लगता।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।48।

अपना स्वाभाविक कर्म दोष युक्त होने पर भी उसे नहीं त्यागना चाहिए चाहे उसे करने में कष्ट हो या दुनियादारी के हिसाब से तुलना करने में वह कर्म दोष युक्त दिखायी देता हो। वैसे सभी कर्म में कुछ न कुछ परिश्रम करना पड़ता है तो फिर स्वाभाववत कर्म क्यों न किया जाय। इसी प्रकार सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं जैसे अग्नि धुएं से युक्त होती है। अतः स्वाभाविक कर्म ही उचित है।

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ।49।

व्यक्ति स्वाभाविक कर्म करता हुआ सरल होता जाता है, उसे अशान्ति नहीं होती है। तत्पश्चात वह उन कर्मों के प्रति भी उदासीन होने लगता है। नियत कर्म के उपस्थित होने पर उन्हें करता है। ऐसा व्यक्ति जिसने आशा को त्याग दिया है, जो यह मेरा-मेरे के भाव से मुक्त हो गया है, जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, ज्ञान योग से जुड़ जाता है; ऐसे व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है और ज्ञान से आत्मतत्व से जुड़कर सरल रूप में अनासक्त कर्म से प्राप्त होने वाली सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात वह माया के बन्धन को काट डालता है और परम स्थिति को प्राप्त होता है।

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।50।

जो स्थिति ज्ञानयोग की परम निष्ठा है अर्थात ज्ञान द्वारा किस प्रकार आत्मतत्व को मनुष्य पाता है, उस बुद्धि से युक्त होकर मनुष्य जीव भ्रम से मुक्त हुआ ब्रह्म स्वरूप हो जाता है, उसे हे अर्जुन, तू संक्षेप में सुन।

बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।51।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त जिसे ब्रह्म की जिज्ञासा हो गयी है, जिसकी असम्भावना (परमात्मा को न मानना) और विपरीत भावना नष्ट हो गयी है। धारण शक्ति द्वारा जिसने पतिव्रता नारी की तरह मन, इन्द्रिय की क्रियाओं को संयम करके आत्मा की ओर लगा दिया है, गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द से उत्पन्न होने वाले विषयों का त्याग करके और राग (मैं और मेरा) तथा द्वेष, दूसरे के प्रति ईष्र्या और बुराई के भाव को त्याग कर दिया है।

विविक्तसेवी लघ्वाशीयतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यंसमुपाश्रितः ।52।

एकान्त और शुद्ध स्थान का सेवन करने वाला, किसी तीर्थ और तपस्थली में रहने वाला अथवा अपने घर में भी सबसे अलग होकर अपना आचरण करने वाला, हल्का नियमित भोजन करने वाला, मन, वाणी और शरीर जिसने वश में कर लिया है, निरन्तर आत्म ध्यान में लगा, ऊँ को व्यवहार में स्मरण करता हुआ, निरन्तर परिवार, समाज, संसार से वैराग्य अर्थात उदासीन भाव से रहने वाला ।

अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।53।

अहंकार अर्थात शरीर और कर्तापन के अभिमान से रहित अपने बल का गुमान न करने वाला परमात्मा पर सदा आश्रित, पाखण्ड रहित, दिखावे के लिए कोई काम न करने वाला, काम-क्रोध से मुक्त पुरुष, धन, सम्पत्ति, परिवार का संग्रह न करने वाला, ममता रहित, मै-मेरा के भाव से परे, शान्त अर्थात जिसकी कामनायें शान्त हो गयी हैं, आत्मतत्व रूपी परब्रह्म को प्राप्त होने के लिए पात्र होता है।

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌ ।54।

जो ब्रह्म भूत हो गया हो अर्थात जिसने स्वरूप स्थिति प्राप्त कर ली है वह सदा आनन्द में रहता है। जो सदा आनन्द में है, विश्वात्मा हो गया है, उसके लिए शोक, आकांक्षा सब निरर्थक हो जाते हैं। ऐसा आत्म स्थित योगी किसी के लिए शोक नहीं करता, किसी भी वस्तु, प्रतिष्ठा, पद की इच्छा नहीं करता क्योंकि वह परम स्थिति को प्राप्त हो चुका है। ऐसा महात्मा समस्त प्राणियों में समभाव रखते हुए मेरी परम भक्ति अर्थात स्वरूप को प्राप्त होता है।

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌ ।55।

मेरी भक्ति अर्थात निज स्वरूप में स्थित होकर वह मुझ परमतत्व आत्मा को, मैं जो हूँ, और जितना हूँ ठीक वैसा तत्व से जान लेता है और मुझको तत्व से जानकर तत्काल मेरे आत्मतत्व में प्रवेश पा लेता है अर्थात मुझे परम शुद्ध ज्ञान रूप समझता है और आत्मा के परम शुद्ध ज्ञान रूप में स्थित हो जाता है। यदि आनन्द स्वरूप समझता है तो परम आनन्द में समा जाता है, परम शान्ति स्वरूप हो जाता है क्योंकि मैं आत्मा ही विशुद्ध पूर्ण ज्ञान हूँ, मैं ही आनन्द हूँ, मैं ही परम शान्ति हूँ ।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌ ।56।

मेरे आश्रित अर्थात जो आत्म स्थित योगी है वह सदा सभी कर्मों को करता हुआ मेरे परम विशुद्ध ज्ञान के प्रसाद से सनातन, अव्यक्त, नाश रहित परम पद जो सब को अपने ज्ञान से प्रकाशित करता है, को प्राप्त होता है

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।57।

हे अर्जुन, तुझे सभी कर्मों का सन्यास अर्थात त्याग मेरे आत्म स्वभाव के लिए करना चाहिए। सब कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर प्रत्येक स्थिति हानि लाभ, जय पराजय, सुख दुःख में समान होकर सदा आत्मरत होकर आत्म स्थित हो।

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि 58।

इस प्रकार कर्म योग और कर्म सन्यास को जानकर सदा मुझ आत्मा में अपने मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को लगा। इससे तुझ पर आत्मा (मेरी) की कृपा होगी और तू माया के बन्धन रूपी दुर्ग से अनायास पार हो जायेगा और यदि तेरा अहं भाव अभी भी नष्ट नहीं हुआ, तू देह में अभी आसक्त है और जो ज्ञान योग, कर्म योग, समत्वयोग, विभूति योग, त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुणों का विवेचन आदि तुझे मेरे द्वारा बताये गये हैं, उसे मूढ़ता के कारण अपने चित्त में धारण नहीं करेगा तो निश्चित ही तेरा पतन होगा।

यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।59।

हे अर्जुन, तू यह भी समझ ले कि मेरे उपदेश पर तू ध्यान नहीं देगा, अपने अहंकार में ही डटा रहेगा और मैं युद्ध भी नहीं करूंगा, इस प्रकार क्षत्रिय धर्म के विपरीत स्वभाव आचरण करेगा तो यह तेरा स्वभाव मिथ्या होगा। तेरी प्रकृति क्षत्रिय है, लोक कल्याण और युद्ध में शस्त्र उठाना तेरी प्रकृति में है अतः तुझे न चाहते हुए भी युद्ध करना पड़ेगा।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्‌ ।60।

हे कुन्ती पुत्र अर्जुन, तू बुद्धि भ्रम अथवा मूढ़ता के कारण जिस कर्म को नहीं करना चाहता उसको अपनी प्रकृति के कारण कर्म से बंधा हुआ परवश करेगा क्योंकि तू जन्म जन्मान्तर क्षत्रिय प्रकृति लेकर पैदा हुआ है अतः यहाँ  युद्ध तुझे हर हाल में करना ही पडे़गा।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ।61।

हे अर्जुन, तू इस बात को भली प्रकार समझ ले कि मैं आत्मा सभी प्राणियों के हृदय में सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्तियों के साथ स्थित रहता हूँ, प्रकृति (माया) का सहारा लेकर सभी भूतों को उसके कर्मों के अनुसार जिससे जैसा कराना है तदनुसार उसे भ्रम में डाल अथवा वैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता हूँ।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌ ।62।

इसलिए तू यह समझ ले कि सबकी गति अव्यक्त परमेश्वर यह आत्मा है। अतः इस आत्मा की शरण में जा, आत्मा की शरण में अंह भाव का त्याग कर निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से सतत् स्वरूपरत हुआ और आत्म स्थित होकर ही तू परम शान्ति और परम स्थिति को प्राप्त होगा।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।63।

श्री कृष्ण चन्द्र अर्जुन से बोले:- इस परम गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय ज्ञान जो मैंने तुझे कह दिया है, वह गोपनीय इसलिए है कि यह प्रत्येक मनुष्य की समझ में नहीं आ सकता, दूसरा इसे वही जान सकता है जो स्वभाव गत कर्मों का अभ्यास करता हुआ योग सिद्धि के लिए प्रयासरत परम शुचिवान, विद्यावान है। इसलिए इस ज्ञान को, जो उपदेश के माध्यम से दिया है को जानकर, तू भली प्रकार विचार करके, यदि तेरी प्रकृति इसे स्वीकारती है तो तू इस ज्ञान का आचरण कर और यदि तेरे अन्दर अभी भी मूढ़ता भरी है तो यह पत्थर में धान उगाने की तरह निरर्थक है। अतः जैसा चाहता है वैसा कर।

सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌ ।64।

हे अर्जुन, सम्पूर्ण गोपनीय में अति गोपनीय मेरे परम रहस्य युक्त वचन को तू फिर से सुन। तू मेरा अति प्रिय है, अनेक जन्मों से तेरा मेरा नाता है, तू देवी सम्पदा को लेकर जन्मा है, मुझमें निष्ठा के कारण तू मुझे अति प्रिय है, अतः फिर से परम हितकारक वचन सुन।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।65।

मुझमें मन वाला हो अर्थात मेरे आत्मतत्व परमात्म स्वरूप में अपना मन समस्त इन्द्रियों सहित स्थापित कर। मेरा भक्त बन अर्थात निरन्तर अपने स्वरूप का अनुसंधान कर, मेरा भजन कर। सब कर्मों में यज्ञ स्वरूप परमात्मा मैं हूँ अतः समस्त कर्मों को मेरे अर्पण कर। इस सृष्टि में आत्मतत्व से बढ़कर और श्रेयकर कुछ भी नही है अतः आत्मा की परम स्थिति को जानकर सब
देवों के देव, सब यज्ञों के स्वामी मुझ आत्मा को नमस्कार कर। सदा आत्म चिन्तन करता हुआ, आत्मा में रमण करता हुआ, तू सब कर्म बन्धनों से मुक्त होकर आत्म स्वरूप हो जायेगा। तुझे परम स्थिति स्वाभाविक रूप से प्राप्त होगी। यहाँ  एक रहस्य और भी है, मेरे में अनन्यता से सभी सात्विक सम्पदा तुझमें बिना प्रयास के आ जायेंगी, मन इन्द्रियों का निग्रह, समत्व भाव, निष्काम कर्म सभी स्वतः सिद्ध हो जायेंगे, यह ही परम सत्य है। तुझसे मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि तू स्वभाव से मुझ परमात्मतत्व से जुड़ा है अतः मुझे प्रिय है।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।66।

सभी धर्मों को छोड़कर मुझ एक की शरण में जा अर्थात मुझ एक आत्मा की शरण में जा. मैं ही तेरी आत्मा हूँ मैं ही विश्वात्मा हूँ. यहाँ वृज शब्द का प्रयोग इसी कारण से किया है.  श्री भगवान् कहते हैं जब तक तू मुझे और अपने को अलग अलग समझेगा तब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता. तू यह समझ ले मैं समस्त प्राणियों की आत्मा हूँ. भगवद्गीता के दसवें अध्याय में  श्री भगवान् कहते हैं 'अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः' 20-10. अतः आत्मा जो एक है जिसमें और मुझमें कोइ भिन्नता नहीं है इसलिए यहाँ मामेकं शब्द का प्रयोग हुआ है. इसी आत्मतत्त्व को  दूसरे अध्याय में विस्तार से समझाया गया है. इसी एक आत्मा की शरण में जाना ही गीता शास्त्र का निचोड़ है. परमात्मा, धर्म (स्वभाव) स्थापना के लिए जन्म लेते हैं। जगह जगह धर्म (स्वभाव) पालन का उपदेश दिया और यहाँ  कहते हैं, सभी धर्मों को छोड़कर अर्थात अपने गुणों का गुमान छोड़कर, अपने इन्द्रिय जनित ज्ञान का मोह छोड़कर, अपनी कमी का संग छोड़कर, अपने श्रेष्ठ कर्म का भी मान छोड़कर अर्थात जो भी तेरा प्रकृति जन्य स्वभाव है उसे छोड़कर, मुझ आत्मरूप परमात्मा की शरण में  जा। स्वभाव, कर्म, यज्ञ, धर्म सभी कुछ छोड़ दे केवल आत्मतत्व को समझ ले और आत्मरत हो जा। आत्मरत होते ही तेरे कर्म बन्धन स्वयं क्षय हो जायेंगे। तू इस विषय में न सोच न चिन्ता कर।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।67।

इन उपदेशों को किसी भी काल में न तो तप रहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति रहित मनुष्य से, न किसी को जबरदस्ती सुनाना चाहिए, जो आत्मा परमात्मा एंव ब्रह्मज्ञानी में दोष दृष्टि रखता है उससे भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि इन सबसे कहने का परिणाम रेतीली जमीन में बिना पानी के फसल पैदा करना है।

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।68।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।69।

जो पुरुष मुझ आत्म स्वरूप परमात्मा में परम प्रेम करता है, सदा आत्मरत रहता है, आत्मा का अनुसंधान करता है, वह इस परम रहस्य युक्त ज्ञान को आत्म ज्ञान के जिज्ञासु भक्तों से कहेगा वह मुझे प्राप्त होगा अर्थात स्वरूप स्थिति को प्राप्त होगा इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। यह निश्चयात्मक बात है ऐसे मनुष्य से अधिक इस संसार में कोई भी मनुष्य मेरा प्रिय करने वाला नहीं है तथा ऐसा आत्मरत योगी जो मेरे भक्तों को आत्म तत्व इस गीतामृत को देगा उसका जन्म इस पृथ्वी में सदा दुर्लभ है।

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।70।

इस प्रकार तुम्हारे मेरे बीच में जो संवाद हुआ है वह संवाद धर्ममय है। यह संवाद प्रकृति (जन्म स्वभाव) को जानने उसमें स्थित रहने उसमें विजय पाने के लिए और आत्म स्वभाव को भी जानने उसमें स्थित रहने और उसे अन्तिम स्थिति जानकर प्राप्त करने के लिए हुआ है। जो भी इस तेरे मेरे सम्वाद का अध्ययन करेगा उसके द्वारा ज्ञान स्वरूप परमात्मा ज्ञान यज्ञ से पूजित होंगे। यह मेरा निश्चय मत है।

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌ ।71।

जो भी मनुष्य दैवी सम्पदा से युक्त होकर श्रद्धा से इस संवाद का श्रवण करेगा, उसके कर्म बन्धन क्षय होते जायेंगे और कर्म बन्धन से मुक्त हुआ वह देह त्याग के पश्चात श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा तथा पुनः योगभ्रष्ट पुरुष योगियों अथवा श्रेष्ठ विद्यावानों के घर में जन्म लेगा।

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।72।

हे अर्जुन, इस धर्म उपदेश को तूने क्या एकाग्र चित्त होकर सुना क्या तेरी मूढ़ता, अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया, क्या तेरी क्लैव्यता समाप्त हो गयी क्या तू स्वरूप स्थिति को समझ गया है क्या तेरा जीव भाव समाप्त हो गया है, क्या तू ब्रह्म भाव में स्थित हो गया है?

अर्जुन उवाच

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ।73।

हे अच्युत, आपकी कृपा से जो आपने मुझे आत्म ज्ञान दिया और कृपा कर आत्मा का विस्तार समझाया तथा प्रत्यक्ष दिखाया उससे मेरा अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया है, मुझे जन्म जन्म की सुधि आ गयी है, मेरे सम्पूर्ण संशय नष्ट हो गये हैं। हे भगवान आप स्वयं आत्मा हैं, परमात्मा हैं, परम योगी हैं, आपकी आज्ञा पालन ही मेरा परम श्रेय है। मैं आपकी आज्ञा पालन करूंगा।

संजय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ।74।

हे अच्युत, आपकी कृपा से जो आपने मुझे आत्म ज्ञान दिया और कृपा कर आत्मा का विस्तार समझाया तथा प्रत्यक्ष दिखाया उससे मेरा अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया है, मुझे जन्म जन्म की सुधि आ गयी है, मेरे सम्पूर्ण संशय नष्ट हो गये हैं। हे भगवान आप स्वयं आत्मा हैं, परमात्मा हैं, परम योगी हैं, आपकी आज्ञा पालन ही मेरा परम श्रेय है। मैं आपकी आज्ञा पालन करूंगा।

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌ ।75।

मैं महर्षि वेद व्यास जी का परम ऋणी एवं कृतज्ञ हूँ जिनकी कृपा और ब्रह्म तेज से मुझे दिव्य दृष्टि प्राप्त हुयी और मैं भगवान श्री कृष्ण चन्द्र के उपदेश को सुन पाया और उनकी कृपा से ही आत्मा के विराट स्वरूप को प्रत्यक्ष देख पाया।

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌ ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ।76।

हे राजन, मैं भगवान श्री कृष्ण और महात्मा अर्जुन के इस परम कल्याण कारक धर्म संवाद को पुनः पुनः स्मरण करके बार बार हर्षित हो रहा हूँ, मेरे आनन्द का पारावार नहीं है। मैं इस उपदेश को सुनकर स्वयं आत्मरत होकर आत्म स्थित हो गया हूँ, यहाँ  केवल आनन्द ही आनन्द है।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ।77।

हे राजन, श्री हरि कृष्ण चन्द्र के अत्यन्त विलक्षण आत्म रूप जो अत्यन्त विराट था जिसका न कोई ओर था न छोर, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों को व्याप्त कर उससे भी ऊपर था, जिसमें सृष्टि की सभी विभूतियाँ परा अपरा प्रकृति समायी थी, युद्ध और उसका परिणाम समाया था को पुनः पुनः स्मरण कर मुझे महान आश्चर्य होता है और मैं बार बार हर्षित होता हूँ।


यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।78।

अतः हे राजन, आप यह निश्चयपूर्वक जान लें कि पाण्डवों की ओर विशुद्ध ज्ञान स्वरूप पूर्ण परमात्मा श्री कृष्ण चन्द्र हैं। वह परमात्मतत्व ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव के भी स्वामी हैं, परम अव्यक्त से भी अव्यक्त हैं। परा, अपरा प्रकृति भी जिससे जन्मी है उन्हीं की महात्मा अर्जुन पर असीम कृपा और स्नेह है तथा उनके उपदेश और आत्म स्वरूप दर्शन से अर्जुन को अपनी स्मृति प्राप्त हो गयी है, वह प्रकृतिस्थ हो गया है। अतः आप यह समझ लें कि जहाँ भगवान हैं, जहाँ अर्जुन हैं, वहीं विजय है, वहीं सौभाग्य है, वहीं सफलता है, वहीं कार्य सिद्ध करने की युक्ति है, वहीं लक्ष्मी है, गौरव है, दैवी गुण है, प्रतिष्ठा है, यही मेरा मत है।
 

         
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः18
       

                                                                        ॐ तत् सत्
                                                               ..................................

Tuesday, September 20, 2011

गीता - आत्मगीता - अध्याय १७ - श्रद्धात्रयविभागयोग (हिन्दी भाष्य ) / भाष्यकार प्रो बसन्त प्रभात जोशी



जो मूढ़ता के कारण अथवा अज्ञान से, बुद्धि भ्रम से, हठपूर्वक मन वाणी शरीर को पीड़ा देते हुएi किया जाता है अथवा दूसरों के अनिष्ट के लिए किया जाता है जैसे  जबरन एक टांग पर पानी में खड़े रहकर, कांटों में लेटकर, अग्नि प्रज्वलित कर उसके भीतर घेरे में बैठकर, बाल-दाड़ी नोचकर, मुर्दे पर बैठ कर, शरीर को कष्ट पहुंचाते हुए अथवा जबरन मौन धारण कर, मन से दूसरे को बुरा चाहने वाले, अपने हित व दूसरे को अहित के लिए निरीह पशुओं को काटने वाले लोगों का आचरण तामस तप कहलाता है।

                               
                                  आत्मगीता  -    भाष्यकार- प्रो. बसन्त प्रभात जोशी
                                                                               
 
                                        अथ सप्तदशोऽध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग


अर्जुन उवाच

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ।1।

अर्जुन बोले, हे श्री भगवान जिस मनुष्य को शास्त्र विधि का ज्ञान नहीं है परन्तु उसके अन्दर श्रद्धा है और श्रद्धा से युक्त होकर पूजन उपासना आदि करते हैं, उनकी स्थिति कौन सी होती है सात्विक, राजसी अथवा तामसी ?

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ।2।

श्री भगवान बोले, हे अर्जुन, यह श्रद्धा जीव स्वभाव में उत्पन्न होती है और तीन प्रकार की होती है; सात्विक, राजसी और तामसी। इस का कारण है सभी प्राणी अपरा प्रकृति (माया) के तीनों गुणों से निर्मित होते हैं और प्रकृति के गुण की प्रधानता के कारण जीव की श्रद्धा और कर्म भी होते हैं। प्रकृति के गुण जीवात्मा के संस्कार बनाते हैं उन संस्कारों से मन बनता है, मन से क्रिया बनती है, इस प्रकार जन्म जन्मान्तर का क्रम चलता रहता है और जीवात्मा के तीन गुण से युक्त संस्कार नहीं मिटते इसलिए जिस आत्मा का जैसा गुण वैसे संस्कार वैसी ही श्रद्धा होती है।

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ।3।


हे अर्जुन, जीवात्मा में जो श्रद्धा होती है वह या तो सात्विक होगी, राजसी होगी अथवा तामसी। समस्त प्राणी किसी न किसी श्रद्धा से युक्त है। त्रिगुणात्मक प्रकृति के कारण जिस मनुष्य में जिस प्रकार की श्रद्धा दिखे, उसे उस गुण से युक्त जानना चाहिए। मनुष्य जिस अवस्था अर्थात जिस गुण की वृद्धि में देह त्यागता है, पुनः देह धारण करता है उसकी वृत्ति उस गुण के अनुसार होती है। तमस में देह त्यागने पर श्रद्धा तमोगुणी, इसी प्रकार तमस में जन्म लेने पर श्रद्धा तमोगुणी। इसी प्रकार अन्य गुणों का प्रभाव देखा जाता है। सूर्य, प्रकाश, चन्द्रमा की प्रभा, वर्षा का जल सब वनस्पतियों को बराबर मिलता है पर जो जैसी वनस्पति होती है उसमें वैसे फूल-फल लगते हैं।

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ।4।

सात्विक श्रद्धा वाले पुरुष देव पूजन, यज्ञ, उपासना करते हैं। रजोगुणी पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा तमोगुणी भूत प्रेत को पूजते हैं, शमशान साधना, कपाल पूजा आदि करते हैं।

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ।5।

जो शास्त्र अनुकूल नियमों को नहीं मानते हुए केवल अपने मन से साधारण अथवा कठिन पूजन, आचरण करते हैं, अपने को कष्ट देते हैं, कई-कई दिन व्रत करते हैं, कोई गड्ढे के नीचे जाते हैं, पेड़ में लटकते हैं, बाल दाड़ी नोचते हैं, दूसरे को पीड़ा देते हैं, पशु बलि, नर बलि देते हैं। यह सभी मनुष्य दम्भ अहंकार से युक्त अनेक सांसारिक भोगों की इच्छा लिए हुए पाखण्ड से इस प्रकार की तुच्छ पूजा आदि कार्य करते हैं।

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌ ।6।

इनका इस प्रकार के दम्भ पाखण्ड युक्त आचरण, जो स्वयं को और दूसरे को कष्ट देने वाला है मुझ जीव आत्मा को अपार पीड़ा देते हैं। इनके इस आचरण से भ्रान्ति और मूढ़ता अधिक और अधिक हो जाती है तथा आत्म तत्व पूर्णतया छिप जाता है। ये मूढ़ स्वभाव वाले असुर स्वभाव को धारण किये होते हैं। इनके लिए प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष कार्य ही सब कुछ होता है। इनका आत्मतत्व विस्मृत हो जाता है।

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ।7।

हे अर्जुन, भोजन भी सबको अपनी प्रकृति के अनुसार प्रिय होता है और यज्ञ, दान, तप भी तीन प्रकार के होते हैं। इनका भेद मैं तुझे बताता हूँ।

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।8।

सतोगुणी जीवात्मा को रस युक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले अर्थात ताजे जिनका शरीर में प्रभाव देर तक रहता है, जिनसे आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढ़ती है, प्रिय लगने वाला भोजन है।

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।9।

कड़वे जिसमें अम्ल की मात्रा ज्यादा हो अर्थात खट्टे व ज्यादा नमक वाले, बहुत गरम, तीखे, रूखे, जिस खाने से मुंह में, पेट में, जलन हो जाय ऐसा भोजन राजस प्रकृति के लोगों को अच्छा लगता है। इस भोजन से दुःख, चिन्ता और शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं।

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ।10।
जो भोजन तमोगुणी मनुष्य को अच्छा लगता है, उसे सुन। अधपका, रस रहित, जो कच्चा हो, या गर्मी से जिसका रस सूख गया हो, दुर्गन्ध युक्त, बासी और जूठा अपवित्र भोजन तामस प्रवृति के लोगों को अच्छा लगता है।

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ।11।

जो शास्त्र विधि से नियत आत्मतत्व परमात्मा के लिए करना कर्तव्य है, यही परम श्रेय का मार्ग है, यही मेरा परम लक्ष्य है, यह जानकर मन को निश्चित करके बिना किसी फल के अर्थात संसार की आसक्ति, इच्छा को छोड़कर किया जाता है वह सात्विक यज्ञ है।

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ।12।

परन्तु जहाँ स्वभाव में केवल दम्भ हो और पाखण्ड के लिए अथवा फल की इच्छा के लिए अपनी सांसारिक इच्छा पूर्ति और अपने अहं की तुष्टि के लिए किया जाता है वह राजस यज्ञ है।

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।13।

जहाँ स्वभाव ही मूढ़ता है, जहाँ किसी शास्त्र विधि नियम का पालन नहीं होता, किसी मर्यादा का पालन नहीं किया जाता, जहाँ मन्त्रों के बिना, बिना किसी अन्नदान के अर्थात जहाँ से न पशु, पक्षी, न मनुष्य, न गुरूजन, न ब्राह्मण संतुष्ट होते हैं अर्थात जहाँ से कोई जीव संतुष्ट नहीं होता, जहाँ श्रद्धा का पूर्णतया अभाव होता है, मूढ़ स्वभाव वाला, मूढ़ता से किया जाने वाला ऐसा यज्ञ तामस यज्ञ कहा जाता है।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।14।

अब श्री भगवान भिन्न भिन्न प्रकार के तप के बारे में बताते हैं। गुरू सेवा अर्थात अपने गुरू की निष्ठा पूर्वक भक्ति, उनके बताये साधन मार्ग में चलना, उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना, उनके दैनिक कार्यों की व्यवस्था देखना आदि, माता पिता की सेवा करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, देव पूजन अर्थात देव स्थान, तीर्थ, संतों की स्थली में जाना अर्थात आत्मरत होने के लिए साधन करना, आत्म ज्ञानी महात्मा के दर्शनों के लिए बार बार जाना, शरीर कर्म और मन की पवित्रता, सब प्राणियों के प्रति सरलता, स्त्री के विषय में पूर्ण संयम रखना और मन वाणी कर्म से किसी को दुःख न देना शरीर सम्बन्धी तप है क्योंकि यह सब शरीर से होते हैं।

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ।15।

ऐसी वाणी न बोलना जिससे दूसरा उत्तेजित हो अथवा दुःखी हो, दूसरे कल्याण के लिए प्रिय वाणी बोलना, सत्य अर्थात अज्ञान को नष्ट करने वाली वाणी बोलना, निरन्तर शास्त्र अध्ययन एवं प्रभु स्मरण में लगे रहना वाणी सम्बन्धी तप कहलाता है।

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।16।

मन की प्रसन्नता अर्थात मन का संकल्प, विकल्प से मुक्त होना, जिसका मन ठहर गया हो, इन्द्रियों की ओर नही भागता है, शान्त अर्थात जो आत्मरत होकर आत्म स्थित हो गया है, मौन अर्थात वासना रहित मौन धारण करते हुए मात्र भगवद् चिन्तन करना, इन्द्रियों का मन से निग्रह, यदि कोई विचार उत्पन्न हो तो वह भगवद् विचार हो, ज्ञान हो, सम्पूर्ण जीवों के कल्याण का भाव हो, यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ।17।

यह जो तीन प्रकार का शरीर, वाणी और मन सम्बन्धी तप बताया गया है वह फल को न चाहने वाले परमात्मा के साथ निरन्तर जुड़े योगी द्वारा परम श्रद्धा से किया जाता है वह तप सात्विक कहलाता है।

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ।18।

जो तप अपने किसी लालच से अपने सत्कार की इच्छा लेकर अपने अभिमान की संतुष्टि के लिए और लोग मेरी जय जयकार करें अथवा किसी सांसारिक अथवा परमार्थ के स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जाता है जहाँ केवल पाखण्ड दिखायी देता है, जिसका फल मिल भी सकता है और नहीं भी मिलता है और यदि फल मिलता है, तो वह थोड़े समय की संतुष्टि देने वाला होता है ऐसा तप राजस तप कहलाता है।

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।19।

जो मूढ़ता के कारण अथवा अज्ञान से, बुद्धि भ्रम से, हठपूर्वक मन वाणी शरीर को पीड़ा देते हुए किया जाता है अथवा दूसरों के अनिष्ट के लिए किया जाता है अर्थात जबरन एक टांग पर पानी में खड़े रहकर, कांटों में लेटकर, अग्नि प्रज्वलित कर उसके भीतर घेरे में बैठकर, बाल-दाड़ी नोचकर, मुर्दे पर बैठ कर, शरीर को कष्ट पहुंचाते हुए अथवा जबरन मौन धारण कर, मन से दूसरे का बुरा चाहने वाले, अपने हित व दूसरे के अहित के लिए निरीह पशुओं को काटने वाले लोगों का आचरण तामस तप कहलाता है।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ।20।

हे अर्जुन, श्रद्धा के अनुसार दान भी तीन प्रकार का होता है। दान देना कर्तव्य है, सत्कर्म है, सब में हरिबोधमयी दृष्टि रख कर, प्राणी मात्र के उपकार के लिए सन्मार्ग से कमाया धन, अन्न अथवा सेवा जो उसके योग्य हो अर्थात जिसे उसकी जरूरत हो जैसे शिवालय में चढ़ाने के लिए ले जाने वाला गंगाजल प्यासे गधे के लिए ज्यादा आवश्यक है, बिना किसी प्रति उपकार के, केवल दयावश यथा समय जब जरूरत हो यथा स्थान जहाँ आवश्यकता हो दिया जाता है, वह दान सात्विक दान कहलाता है।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌ ।21।

जिस दान को देने में अन्दर से कष्ट हो या इस भावना को ध्यान में रखकर दिया जाय कि इस दान को देने से मेरा यह लाभ होगा, जहाँ फल की इच्छा प्रमुख है, दिखावे के लिए पाखंड, दम्भाचरण, लोक परलोक के हित से दिया जाता है, जरूरतमन्द का ध्यान नहीं रखा जाता कि कब कहाँ देना है, केवल अपना प्रयोजन प्रमुख है ऐसा दान राजस दान कहलाता है।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।22।

जहाँ मूढ़ता हो, बुद्धि भ्रम हो, अज्ञान हो, जहाँ दान में दिया जाने वाला धन, अन्न आदि चोरी का हो या छीना हुआ हो, किसी प्राणी का तिरस्कार कर के, दुत्कारते हुए अथवा जो उस दान का दुरुपयोग करे ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है वह दान तामस दान कहलाता है।

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ।23।

तीन प्रकार की श्रद्धा बताने के पश्चात श्री भगवान कहते हैं हे अर्जुन, श्रद्धा न डिगे और योगक्षेम भली भांति हो इसलिए सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। इसे बताते हुए वह कहते हैं, आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ’ऊँ‘ ’तत्‘ ’सत्‘ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ।24।

इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।

तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ।25।

आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘ शब्द का उच्चारण करते हैं। वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं।

सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ।26।

सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन का प्रयोग किया जाता है।

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ।27।

हे अर्जुन, परमात्मा के निमित्त कर्म, दान एवं तप में जो स्थिति है वह भी सत् कही जाती है। इसलिए सत् नाम को परमात्मा का नाम जान और सत् नाम की विलक्षण शक्ति को स्वीकार कर और पहचान कर, परमात्मा के निमित्त कर्म के साथ सदा सत् शब्द का प्रयोग करना चाहिए।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।28।

हे अर्जुन, जिस कर्म में श्रद्धा नहीं है ऐसा हवन, दान, तप, अन्य कर्म सदा असत् हैं अर्थात अज्ञान हैं, मूढ़ता हैं और मूढ़ता से न संसार में कुछ प्राप्त है न मृत्यु के बाद मूढ़ता सद्गति देती है। पुनः जीव अधम योनियों को प्राप्त होता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय : 17
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गीता - आत्मगीता - अध्याय १६ -दैवासुरसम्पद्विभागयोग (हिन्दी भाष्य ) / भाष्यकार प्रो बसन्त प्रभात जोशी



विभिन्न आशाओं के जाल में फंसे हुए आसुरी वृत्ति के मनुष्य सदा काम और क्रोध में रहते हैं। नित नई कामना करते हैं। हर कामना पूरी नहीं हो सकती और कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है।
विषय भोग ही इनका जीवन है जिसके लिए अन्याय पूर्वक धन आदि का संग्रह करने का प्रयत्न करते हैं।




                                          आत्मगीता  -  भाष्यकार- प्रो. बसन्त
                                                                       

                                    अथ षोडशोऽध्यायः दैवासुरसम्पद्विभागयोग

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌ ।1।

यहाँ  श्री भगवान कृष्ण चन्द्र अर्जुन को दैवी सम्पदा प्राप्त पुरुषों के लक्षण बताते हैं। दैवी सम्पदा प्राप्त पुरुषों में भय का अभाव हो जाता है, जीव भाव नष्ट होने से मनुष्य जन्म मृत्यु जरा दुःख के भय से मुक्त हो जाता है। उसकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है। संकल्प विकल्प जन्म नहीं लेते। सूक्ष्म हुयी बुद्धि आत्म आनन्द का अनुभव करने लगती है। ज्ञान योग से मेरे में जिसकी स्थिति द्रढ़ हो गयी है अर्थात जो आत्म स्थित हो गया है, परहित के लिए निसंकोच भाव से सर्वस्व दान करने वाले अथवा दूसरों की सेवा में बिना प्रत्युपकार के लगे हुए, जिसकी इन्द्रियां उसके वश में हैं, स्वभाव में स्थित और परमात्मा के निमित्त कर्म करना, निरन्तर शास्त्र वचनों का चिन्तन मनन करना, तप (जप कहाँ से आ रहा है इसे देखना तप है), में लगा हुआ, मन से सरलता अर्थात बालक के समान सरल जो मिट्टी सोने, अच्छे बुरे को समान समझता है।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌ ।2।

मन वाणी कर्म से किसी को दुख नहीं देना, सत्य अर्थात जिसके संशय और अज्ञान नष्ट होकर ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है। त्याग अर्थात अहं बुद्धि का त्याग, देह भावना का त्याग विशुद्ध ज्ञान की स्थिति (जहाँ शान्ति और आनन्द होता है), किसी की निन्दा न करना, किसी के दोष न देखना, सब प्राणियों में बिना इस विचार के कि वह अच्छा है या बुरा, सभी की बिना स्वार्थ के भलाई करना, किसी भी विषय का संयोग होने पर उसमें आसक्ति नहीं होना, जो संसार के हित के लिए अपने हृदय में कोमलता रखते हैं, अपने गुणों की चर्चा होने पर जो लजा जाते हैं, जिनमें व्यर्थ चेष्टा का अभाव हो गया है अर्थात जिसने मन को वश में करके इन्द्रियों को अपाहिज सा बना दिया है।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।3।

तेज अर्थात आत्मा की ओर मन की गति से जो भाव उत्पन्न होता है वह तेज है, क्षमा, अपने प्रति अपराध करने वाले को भी अहंकार हुए बिना अभय देना, धृति, दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट आने पर भी धैर्य धारण करना, शान्त रहना, जो बाहर भीतर से शुद्ध हो, जो किसी भी प्राणी से शत्रु भाव न रखे तथा सभी प्राणियों का हित चाहने वाला हो, अपने में पूज्यता के अभिमान का अर्थात पूज्यता से जिनमें संकोच होता है; यह 26 गुण दैवी सम्पदा को लेकर जन्मे पुरुष में होते हैं।

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌ ।4।

हे अर्जुन, दम्भ अर्थात वास्तविकता छिपाकर मिथ्या रूप दिखाना, ईश्वर भक्ति का गर्व पूर्वक बाजार में प्रचार करना, दर्प, सबको नीचा दिखाने की आदत, आधा जल भरा हुआ गागर जिस प्रकार छलकता है उसी प्रकार जो प्रभुता को नहीं पचा पाता, अभिमान अर्थात अपने को, अपने ज्ञान को श्रेष्ठ मानना, क्रोध, कठोर वाणी से दूसरे को जलाना, अपमान करना, मूढ़ता जो शुभ और अशुभ में फर्क नहीं कर सकता, आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न पुरुष के लक्षण हैं।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।5।

दैवी सम्पदा कर्म बन्धन, अज्ञान बन्धन, माया बन्धन से मुक्ति के लिए है। दैवी सम्पदा परम ज्ञान को उपलब्ध कराती है, आसुरी सम्पदा लोहे की जंजीर है जो जीव को अपनी बेडि़यों में जकड़ लेती है। हे अर्जुन, तू मत घबरा क्योंकि तू दैवी सम्पदा लेकर जन्मा है।


द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु ।6।

श्री भगवान् अर्जुन से कहते हैं - इस संसार में दो अनादि मार्ग हैं, आसुरी प्रकृति और दैवी प्रकृति। दैवी प्रकृति के बारे में मैं तुझे विस्तार से बता चुका हूँ अब तू आसुरी प्रकृति के बारे में सुन।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।7।

आसुरी स्वभाव वाले नहीं जानते कि किस कर्म को करना चाहिए किस कर्म से दूर रहना चाहिए, किस कार्य से स्वयं उनकी हानि होगी तथा किसी कार्य से उन्हें फायदा होगा इस विषय में वह मूढ़ होते हैं क्योंकि अत्याधिक तम और रज का प्रभाव उनमें होता है। न उनका अन्तःकरण शुद्ध होता है न वह शारीरिक रूप से पवित्र होते हैं, उनका कोई आचरण श्रेष्ठ नहीं होता, वह दूसरे को अपमानित करने वाले, कष्ट देने वाले गलत मार्ग में डालने वाले होते हैं। सत्य से कोई प्रीति अर्थात अज्ञान का नष्ट करने के लिए उनका कोई कार्य नहीं होता, ज्ञान के लिए वह कभी लालायित नहीं रहते।

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌ ।8।

वे आसुरी वृत्ति वाले जगत को आश्रय रहित, असत्य और बिना ईश्वर के मानते है। यह संसार स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और काम ही इसका कारण है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं है। वह यह मानकर चलते हैं जो आज है वही सब कुछ है। भोग ही उनका जीवन है। शास्त्र उनके लिए मिथ्या है। दैवी सम्पदा मूर्खता है। देह ही उनके लिए सर्वोपरि है। उनके अनुसार पाप-पुण्य,  स्वर्ग-नरक, ज्ञान, ईश्वर सब कल्पना है।

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।9।

इस प्रकार मिथ्या दृष्टि को आधार मानकर चलने वाले जिनका ज्ञान नष्ट हो गया है, जिन की बुद्धि अल्प है, ऐसे आसुरी वृत्ति के लोग सबका अपकार करने वाले कठोर और निन्दनीय कर्म (विकर्म) में लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्य से जड़ चेतन सभी त्रास पाते है। जगत के अहित के लिए ही इनका जन्म होता है।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ।10।

ये दम्भ, मान, मद से युक्त मनुष्य किसी भी प्रकार से पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर संसार में विचरते हैं। यही नहीं उनमें अज्ञान के कारण अनेक भ्रान्ति पूर्ण बातें मस्तिष्क में भरी रहती है, जिसके कारण उनका आचरण भ्रष्ट रहता है। जगत के प्राणियों को पीड़ित करने वाले, उन्मत्त मनमाना पापाचरण करते हैं।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ।11।

उनका केवल एक ही विचार रहता है, कैसे ही भोग करें, कैसे सुख मिले। इसके लिए कुछ भी करना पड़े इस कारण मृत्यु होने तक अनेक चिन्ताओं को पाले रखते हैं कैसे भी जमीन जायदाद बढ़ानी है, ऐशो-आराम की वस्तुएं जुटानी हैं, भोग करना है इस व्यक्ति को नष्ट करना है आदि सदा विषय भोग में लगे, उसे ही सुख मानने वाले होते हैं।

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌ ।12।

विभिन्न आशाओं के जाल में फंसे हुए आसुरी वृत्ति के मनुष्य सदा काम और क्रोध में रहते हैं। नित नई कामना करते हैं। हर कामना पूरी नहीं हो सकती और कामना में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। विषय भोग ही इनका जीवन है जिसके लिए अन्याय पूर्वक धन आदि का संग्रह करने का प्रयत्न करते हैं।

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌ ।13।

अपने समाज में यह कहते फिरते हैं मैंने यह प्राप्त कर लिया है,अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा जैसे एक कारखाना लगा दिया है दो और लगाने हैं, इस साल इतना कमाना है अगले वर्ष दुगना करना है, मेरे पास इतना धन है फिर इतना हो जायेगा।

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।14।

इस शत्रु को मैंने मार डाला है या नष्ट कर दिया कल दूसरे को भी मटियामेट कर दूंगा मैं मालिक हूँ, मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही बलवान हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, मैं ही भोगने वाला हूँ, सब मेरे आधीन हैं, मैं ही पृथ्वी का राजा हूँ, यह सब मेरा ही ऐश्वर्य है आदि।

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।15।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।16।

मैं बड़ा धनी हूँ, कुबेर से ज्यादा धन मेरे पास है, मैं बड़े कुटुम्ब वाला हूँ, मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। जो हूँ मैं ही हूँ, मैं यज्ञ करूंगा, दान दूँगा, आमोद प्रमोद करूंगा, ऐसी कभी खत्म नहीं होने वाली कामनाओं को लिए हुए रहते हैं। इनका हृदय सदा जलता रहता है। इनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित व भ्रमित रहती है। यह जमीन, धन, परिवार, झूठी प्रतिष्ठा के मोह से घिरे रहते हैं। सदा विषय भोग में लगे अत्यन्त कामी आसुरी वृत्ति के यह लोग घोर नरक को प्राप्त होते हैं अर्थात मूढ़ योनियों को प्राप्त होते हैं। आत्मा की अधोगति नरक है और उर्ध्वगति स्वर्ग है।

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌ ।17।

यह सदा दूसरों से अपने को हर बात में श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और झूठेमान मद से युक्त होकर दिखावे का यज्ञ पूजन करते हैं और जिसमें शास्त्र की बतायी विधि का पालन नहीं किया जाता केवल अपनी वाहवाही के लिए पाखण्ड पूजन आदि करते हैं।

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ।18।

यह आसुरी वृत्ति के पुरुष अहंकार, बल, घमण्ड, कामना, क्रोध आदि के आश्रित रहते हैं। सदा दूसरों की निन्दा करते हैं, इस प्रकार अपने शरीर में तथा दूसरे के शरीर में स्थित परमात्मा से अहंकार और मूढ़ भाव के कारण द्वेष करते हैं।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।19।

अपने आत्मतत्व से द्वेष करने वाले मूढ़ पापाचारी क्रूर कर्मी अधम मनुष्यों को मैं इस संसार में बार-बार अशुभ योनि यथा अंग भंग शरीर, असाध्य जन्मजात बीमारी लिए एवं मूढ़ मनुष्यों के रूप में डालता हूँ।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌ ।20।

हे अर्जुन, वे मूढ़ (अज्ञानी) पुरुष मुझ आत्मा स्वरूप परमात्मा को नहीं जानते हैं, इस कारण उनकी ज्ञान की ओर वृत्ति पैदा नहीं होती और जन्म जन्मान्तर आसुरी (मूढ़) योनि को प्राप्त होते हैं। कर्मानुसार घोर क्रूर कर्म होने के कारण नीच से भी नीच मूढ़ योनि को प्राप्त होते हैं।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌ ।21।

काम, क्रोध और लोभ यह तीन नरक के द्वार हैं अर्थात जहाँ काम क्रोध और लोभ होगा वहाँ मूढ़ता की अधिकता होगी और मूढ़ता (तमस) नीच से नीच योनि की ओर ले जाती है। इन तीनों से आत्मा का स्वरूप आच्छादित हो जाता है। जीव अपनी स्वरूप स्थिति को पूर्णतया भूल जाता है और अधोगति की ओर चल देता है। अतः आत्म स्वरूप को विस्मृत करने वाले इन तीनों मूढ़ता के स्वजनों को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए।

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌ ।22।

हे अर्जुन, इन तीन काम, क्रोध और लोभ नरक के द्वार से मुक्त पुरुष ही ज्ञान आचरण कर अपना कल्याण कर पाता है क्योंकि इनके रहते ज्ञान का दीप नहीं जलता। इन तीनों के नष्ट होने पर ही सहज वैराग्य और ज्ञान हो जाता है और साधक परमगति अर्थात आत्मतत्व को प्राप्त होता है।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ।23।

जो पुरुष शास्त्र विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से अपनी कामना और लोभ संतुष्टि के लिए मनमाना आचरण करता है, वह इन्द्रियों से पराजित कभी भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। परम गति तो बहुत दूर की बात है फिर सुख, आनन्द, ज्ञान, शान्ति उसे कैसे प्राप्त हो सकती है।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।24।

अतः क्या कर्तव्य हैं और कौन से अकर्तव्य हैं इसमें शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिए। जिन कर्मों का शास्त्र निषेध करते हैं उन्हें नहीं करना चाहिए। जिन्हें शास्त्र अनुमति देते हैं वही कर्म करने योग्य हैं क्योंकि शास्त्र समस्त नियम मुमुक्ष जनों के बनाये हैं। इसे जान कर हे अर्जुन, तू शास्त्र सम्मत कर्म कर।


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः 16

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गीता - आत्मगीता - अध्याय १५ - उर्ध्वमूल अश्वत्थयोग (हिन्दी भाष्य ) / भाष्यकार प्रो बसन्त



इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है अर्थात जहाँ से सृष्टि जन्मी है परमात्मा उससे परे है और माया जिसे अज्ञान कहा है इस सृष्टि का मूल है।
मैं समस्त प्राणियों के हृदय में इस विचार का कारण हूँ कि ‘मैं अमुक हूँ’। मेरे कारण ही ज्ञान होता है क्योंकि मैं ही परम ज्ञान हूँ। मेरे द्वारा ही मूढ़ता, संशय नष्ट होते हैं। ज्ञान मेरा ही स्वरूप है।


                                 आत्मगीता -   भाष्यकार- प्रो. बसन्त प्रभात जोशी
                                                       

                                     अथ पञ्चदशोऽध्यायः उर्ध्वमूल अश्वत्थयोग



श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ।1।

श्री भगवान अर्जुन को सृष्टि का रहस्य बताते हुए कहते हैं; इस सृष्टि का जो मूल है वह परब्रह्म परमात्मा मूल से भी ऊपर है अर्थात जहाँ से सृष्टि जन्मी है परमात्मा उससे परे है और माया जिसे अज्ञान कहा है इस सृष्टि का मूल है। उस मूल से परे अक्षर ब्रह्म से यह अश्वत्थ वृक्ष पैदा होता है। माया इस वृक्ष का मूल है, इस वृक्ष का फैलाव ऊपर से नीचे की ओर है। अक्षर ब्रह्म में स्थित माया के बीज से माया का अंकुर फूटता है। माया (अज्ञान) उस अक्षर ब्रह्म से उत्पन्न ब्रह अंश जीव (ज्ञान) को आच्छादित कर सुला देती है। परम शुद्ध जीव (ज्ञान) को अज्ञान (माया) क्रमशः अधिक-अधिक आवृत्त करते जाता है। यही अश्वत्थ वृक्ष की ऊपर से नीचे की ओर फैलने की गति है। यह माया का वृक्ष अश्वत्थ है। अश्वत्थ का अर्थ होता है जो आज है कल नहीं है। वेद (छन्द) इसके पत्ते हैं अर्थात वेद भी माया के पार नहीं जा पाते हैं, अज्ञान से प्रभावित होने के कारण उनकी पहुंच सीमित है। जो मनुष्य इस अश्वत्थ वृक्ष को तत्व से जानता है वही यथार्थ ज्ञानी है।

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।2।

इस अश्वत्थ वृक्ष को माया सत्त्व रज तम तीन गुणों से सींचती है। विषय भोग इसके कोपल हैं, चौरासी लाख योनियाँ इसकी शाखाएं हैं, जो ऊपर नीचे सभी जगह फैली हुयी हैं। कर्म बन्धन इस माया रूपी वृक्ष की जड़ हैं, यह जड़ें सभी ओर फैली हुयी हैं। इस अश्वत्थ वृक्ष को हम मानव देह में भी देख सकते हैं। ब्रह्मरंध्र में अव्यक्त परमात्मा का निवास है। इस अश्वत्थ वृक्ष का आज्ञा चक्र से लेकर मूलाधार तक तना है। आज्ञा चक्र से क्रमशः विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार में ज्ञान क्रमशः कम होता जाता है। अनाहत और उसके नीचे के चक्रों में तीन गुणों का प्रभाव अधिक और अधिक हो जाता है। यहीं से माया मोह राग द्वेष का जन्म होता है। कर्म में प्रवृत्ति, कर्मफल आसक्ति का फैलाव शरीर में होता जाता है। इसे इस रूप में भी देख सकते हैं ज्ञान, माया (अज्ञान), बुद्धि, मन, शब्द, स्पर्श, प्रभा, रस, गन्ध, ज्ञानेन्द्रियाँ, वासना, कर्मेन्द्रियाँ, विषय, संसार, कर्मफल।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल
मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।3।

इस अश्वत्थ वृक्ष का स्वरूप संसार में नहीं दिखायी देता क्योंकि इसका न आदि है न अन्त अर्थात कहाँ से प्रारम्भ हुआ, कहाँ इसका अन्त होगा कोई नहीं बता सकता। यही नहीं यह वृक्ष अच्छी प्रकार स्थित भी नहीं है, क्योंकि यह नाशवान है। इस वृक्ष की जड़ें बहुत ही गहराई तक गयी हैं। अज्ञान इस वृक्ष की जड़ है, जो इतनी प्रभावशाली है कि उसने अव्यक्त परब्रह्म को भी आच्छादित कर रक्खा है। इसको काटने का एक ही उपाय है कि वैराग्य रूपी शस्त्र मन में लेकर इस अज्ञान के विशाल अश्वत्थ वृक्ष पर ज्ञान की धार का प्रहार किया जाय। सतत् अभ्यास, वैराग्य द्वारा प्राप्त ब्रह्म ज्ञान के होने पर ही, यह वृक्ष नष्ट होता है।

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।4।

वैराग्य से इस संसार रूपी वृक्ष को काटकर उस परम पद को भली प्रकार खोजना चाहिए। यह वह स्थिति है जिसे प्राप्त होकर इस वृक्ष के फल उस मनुष्य को ललचा नहीं सकते हैं। संसार चक्र से वे मुक्त हो जाते हैं। उस परब्रह्म परमात्मा से ही यह संसार की प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है क्योंकि वह ब्रह्म इसकी उत्पत्ति मूल से ऊपर है, ‘उर्ध्व मूल’ है। ऐसे आदि परम परमात्मा में निरन्तर आत्मरत रहना चाहिए। उस आत्मतत्व में निमग्न पुरुष पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होकर उसी में स्थित हो जाता है।

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञै
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ।5।

जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिस प्रकार प्रकाश होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है। जिसने आसक्ति रूपी दोष को जीत लिया है अर्थात कमलवत संसार में रहता है, ऐसा विकारहीन पुरुष जो सदा आत्म स्वरूप में स्थित रहता है; ऐसे आत्मरत ब्रह्म ज्ञानी, जिसकी सभी कामनायें नष्ट हो गयी हैं, भुने बीज के समान जिसमें कामना का अंकुर नहीं फूट सकता, सुख-दुःख द्वन्द्वों से मुक्त होकर परम स्थिति ‘अव्यक्त’ का अधिकारी होता है।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।6।

मेरे परम स्थान (आत्म स्वरूप) को सूर्य चन्द्रमा और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह स्थान शाश्वत और परम ज्ञान की स्थिति है। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि अथवा सृष्टि का प्रत्येक परमाणु उसी की सत्ता से संचालित होता है। उसी के कारण सृष्टि प्रकाशित और संचालित है। उस परम स्थान को प्राप्त कर मनुष्य पुनः अज्ञान को प्राप्त नहीं होता जहाँ अज्ञान का कोई अंश भी नहीं है, पूर्ण बोध स्वरूप जो स्थिति है, वह मेरा परम धाम है।यहाँ परमधाम शब्द परम स्थिति का द्योतक है।

श्रीभगवानुवाच

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।7।

इस देह में अविनाशी जीव मेरा ही अंश है। जब आत्मा इस देह को अपना मान आचरण करने लगता है तो परमतत्व आत्मा जीवत्व धारण कर लेता है। देह के प्रति अहंकार से आत्मा जीवात्मा हो जाती है। आत्मा प्रकृति से एकता पाकर उसके स्वभाव को स्वीकार कर लेती है, फिर मन और पांच इन्द्रियां मेरी हैं यह मानकर कर्म में प्रवृत्त होती हैं, मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ का भाव उदय हो जाता है। फिर वह आत्मा अपना स्वरूप भूल कर जीवात्मा हो जाती है, उसका संग प्रकृति मन और पांच इन्द्रियों से हो जाता है तथा वह देह त्याग करते समय उन मन इन्द्रियों और प्रकृति को आकर्षित करता है।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌ ।8।

देह त्याग करते समय इस देह का स्वामी जीवात्मा जब देह त्याग कर जाता है तो जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाती है उसी प्रकार मन सहित इन्द्रियों को ले जाता है। देह त्याग के समय पांच इन्द्रियों की तन्मात्रायें गन्ध, रस, प्रभा, स्पर्श, शब्द; गन्ध-रस में समाहित हो जाती है फिर गन्ध-रस-प्रभा में,इस प्रकार सब शब्द में समाहित हो जाते हैं, शब्द स्वभाव में समाहित जाता है और स्वभाव के साथ जीवात्मा इस देह से अलग हो जाता है फिर जिस शरीर को धारण करता है वहाँ उस पूर्व देह के स्वभाव और शब्द, स्पर्श, प्रभा, रस, गन्ध को लेकर शरीर में स्थित हो जाता है।

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।9।

यह जीवात्मा जहाँ भी जाता है अर्थात जन्म लेता है वहाँ मन और इन्द्रियों का विस्तार कर लेता है। वहाँ वह कान, आंख, त्वचा, रसना घ्राण, और मन के द्वारा विषयों को भोगता है।

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।10।

अज्ञानी पुरुष इस आत्मा को शरीर छोड़कर जाता हुआ, शरीर में जन्म लेता हुआ और भिन्न भिन्न विषयों को भोगता हुआ देखते हैं वे अविकारी आत्मा को जन्म लेने वाला और मरने वाला, भोगने वाला मानते हैं। जीव बुद्धि से आत्मा में जीव भाव आरोपित करते हैं परन्तु जिन्हें आत्म ज्ञान हो गया है वह आत्मा को अक्रिय मानते हैं चाहे शरीर में कर्ता, भोक्ता, आते जाते दिखायी देती है परन्तु वह सदा नित्य कूटस्थ है, अविकारी है.

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌ ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।11।

निरन्तर आत्मचिन्तन में लगे, स्वरूप की खोज में रत योगी इस अव्यक्त अविकारी अकर्ता आत्मा को स्वयं आत्म दर्शन कर तत्व से जानते हैं परन्तु जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है जिसमें देह बुद्धि है, जीव-भाव है, जो मूढ़ हैं, वह यत्न करने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते।

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌ ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌ ।12।

सूर्य में जो तेज है, जिस कारण सूर्य लगातार अग्नि और प्रकाश स्वरूप है उसका कारण उसके अन्दर छिपी जीव शक्ति मैं ही हूँ। इसी प्रकार जो तेज चन्द्रमा में अग्नि में या अन्यत्र में है उसके पीछे तू मेरा ही तेज समझ। मेरी जीव शक्ति ही मेरी जड़ प्रकृति को आन्दोलित कर यह सब तेज प्रकट कर रही है।

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।13।

पृथ्वी की जो आधार भूत शक्ति है अर्थात जो धारण करने की शक्ति है वह मेरी परा शक्ति के कारण ही है। चन्द्रमा का जो सोम है जिसके कारण पृथ्वी की वनस्पति पुष्ट होती है उन सबके पीछे भी मैं ही छिपा हुआ हूँ अर्थात मेरी परा प्रकृति के कारण अपरा प्रकृति में उसके गुण प्रकट होने लगते हैं।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌ ।14।

मैं सभी प्राणियों के शरीर में वैश्वानर अग्नि के रूप में प्रज्वलित रहता हूँ। यहाँ  प्राण और अपान वायु धौंकनी की तरह इस अग्नि को सुलगाते हैं। मैं इस अग्नि के द्वारा चारों प्रकार के अन्न (कच्चा, पका हुआ, अधपका, द्रव युक्त) को पचाता हूँ अर्थात प्राणियों के शरीर में वैश्वानर अग्नि मेरे कारण ही प्रज्वलित हैं।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌ ।15।

मैं समस्त प्राणियों के हृदय में इस विचार का कारण हूँ कि ‘मैं अमुक हूँ’। मुझसे स्मृति ज्ञान और अपोहन होता है। स्मृति, का अर्थ है स्मरणशक्ति। यहाँ  यह जानना महत्वपूर्ण है कि जो मनुष्य परमात्मा के जितने नजदीक है उसकी स्मरण शक्ति उतनी अधिक अच्छी होती है। ईश्वर कृपा अथवा उसकी नजदीकी को स्मरण शक्ति (याददाश्त) से जाना जा सकता है। मेरे कारण ही ज्ञान होता है क्योंकि मैं ही परम ज्ञान हूँ। मेरे द्वारा ही मूढ़ता, संशय नष्ट होते हैं। वेदों में जो कुछ जानने योग्य ज्ञान है वह मैं ही हूँ, मैं ही ज्ञान का कर्ता और ज्ञान को जानने वाला हूँ। ज्ञान मेरा ही स्वरूप है।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।16।

इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं एक क्षर पुरुष जो आता जाता, जन्म लेता मरता दिखाई देता है परन्तु अविनाशी है। उपाधि ग्रस्त होने से इस अविनाशी पुरुष का आना जाना प्रतीत होता है इसलिए यहाँ इस अविनाशी जीव को क्षर पुरुष कहा गया है. दूसरा अक्षर पुरुष है। यह उत्तम पुरुष परमात्मा और क्षर पुरुष जीव के बीच मध्यस्थ पुरुष है. यह ब्रह्म की अज्ञानमय अवस्था है। यहाँ से अश्वत्थ जन्म लेता है। माया इस अक्षर पुरुष में बीज रूप में स्थित रहती है। जीव और माया  दोनों यहाँ से उत्पन्न होते हैं।  

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।17।

इसमें भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि इन क्षर अक्षर दो पुरुषों के अलावा एक तीसरा पुरुष भी है। यह पुरुष अत्यन्त श्रेष्ठ है और जब यह होता है तो दोनों पुरुषों के अस्तित्व को समाप्त कर देता है और सर्वत्र यही उत्तम पुरुष व्याप्त हो जाता है। जब द्रष्टा भाव और दृश्य का लोप हो जाता है तो यह पुरुषोत्तम ही रहता है। यह पुरुषोत्तम तीनों लोकों में अर्थात सृष्टि के कण कण में व्याप्त होकर सृष्टि को धारण किये है। यह उत्तम पुरुष ही परमात्मा है, यही विशुद्ध आत्मा है।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।18।

मैं (पुरुषोत्तम) आत्मा क्षर (नाशवान जड़ पदार्थ) जो माया का संसार है, से परे हूँ तथा दूसरे पुरुष जिसे अक्षर अर्थात अविनाशी जीवात्मा जाना जाता है, से भी श्रेष्ठ हूँ इसलिए संसार में और आत्मतत्व को जानने वाले ज्ञान में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता हूँ।

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।19।

जो ज्ञानी पुरुष क्षर अक्षर को समझते हुए उनसे परे मुझ आत्मतत्व (पुरुषोत्तम) को भली प्रकार जानते है वह यथार्थ को जानने वाला है, सर्वज्ञ है। वह मुझ आत्मा को ही परम गति, परम स्थिति, परब्रह्म परमात्मा जान लेता है, उसकी समस्त साधना, ध्यान योग, सन्यास, यत्न, भक्ति, उपासना आदि सब मेरे लिए होती है। वह आत्म स्थित सदा मुझ परमेश्वर (आत्मतत्व) को ही भजता है अर्थात सदा आत्मरत रहता है।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।20।

हे निष्पाप अर्जुन, मैंने अत्यन्त गोपनीय शास्त्र को तुझे बताया है, यह कोई कल्पना नहीं है, यह यथार्थ है और इसे जानना, समझना और अनुभूत करना हर एक के वश की बात भी नहीं है इसलिए यह गोपनीय है। परन्तु जो मनुष्य इस ज्ञान के तत्व को अर्थात आत्मतत्व को समझ जाता है उसका कल्याण हो जाता है।


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे उर्ध्वमूल अश्वत्थयोग 
 नाम पञ्चदशोऽध्यायः 15
                               
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गीता - आत्मगीता - अध्याय १४ - त्रिगुणयोग (हिन्दी भाष्य ) / भाष्यकार बसन्त


हे अर्जुन, जिसे ब्रह्म कहा गया है वह ब्रह्म ही यह आत्मा (मैं हूँ) है। मैं आत्मा अमृत हूँ अर्थात परम विशुद्ध ज्ञान हूँ जिसका कभी नाश नहीं होता। मैं ही स्वभाव (धर्म) का आश्रय हूँ।

प्रकृति अर्थात ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में कार्य करने से गुण उत्पन्न होते हैं।
                               

                                                आत्मगीता - भाष्यकार- प्रो. बसन्त प्रभात जोशी

                                                          अथ चतुर्दशोऽध्यायः त्रिगुणयोग

श्रीभगवानुवाच

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ।1।

भगवान श्री कृष्ण चन्द्र अर्जुन से बोले - अब तुझे ज्ञानों में भी सर्वश्रेष्ठ ज्ञान को फिर से बताता हूँ क्योंकि अर्जुन ने प्रभु का विराट स्वरूप देखने पर भी मनुज रूप देखने की इच्छा की, जिससे प्रभु समझ गए अभी इसके मोह और कर्म बन्धन पूर्ण रूपेण नष्ट नहीं हुए हैं अतः फिर से आत्म ज्ञान को यहाँ  बताते हैं जिसे जानकर माया के बन्धन से मुनि मुक्त हो जाते हैं और परम सिद्धि आत्मतत्व को पाते हैं।

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।2।

इस ज्ञान को अपने अन्तःकरण में स्थित करके आत्म स्वरूप हुए मनुष्य सृष्टि के प्रारम्भ में जन्म नहीं लेते और प्रलयावस्था में व्याकुल नहीं होते क्योंकि आत्मज्ञान हो जाने के कारण उनके कर्म बन्धन क्षय हो जाते हैं। यदि वह जन्म भी लेते हैं तो निज इच्छा से प्रकट होते हैं। जन्म मृत्यु के भय से वह सदा सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।3।

जिस प्रकार संसार में प्राणियों का जन्म स्त्री-पुरुष के संयोग से होता है उसी प्रकार यह मूल प्रकृति (महत् ब्रह्म) गर्भाधान का स्थान है और मैं परब्रह्म परमात्मा इस प्रकृति में गर्भ को स्थापित करता हूँ। तब जड़ और चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है।

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।4।

इस जगत में भिन्न भिन्न योंनियों में भिन्न भिन्न शरीर धारी उत्पन्न होते हैं। व्यक्त प्रकृति उन सब की गर्भधारण करने वाली माता है और मैं आत्मा उन सब में बीज स्थापित करने वाला पिता हूँ। आत्मा ही पति है, प्रकृति पत्नी, और जगत संतान है।

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌ ।5।

प्रकृति अर्थात ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में कार्य करने से गुण उत्पन्न होते हैं। इन्हें तीन भागों में विभाजित किया है। यह हैं सत्त्व, रज, तम। सत्त्व में ज्ञान शक्ति अधिक होती है, रज में क्रिया शक्ति अधिक होती है और तम में ज्ञान शक्ति लगभग लुप्त होती है, क्रिया शक्ति अति अल्प होती है। यह तीनों गुण अविनाशी अव्यक्त आत्मतत्व परमात्मा को इस शरीर में मोहित कर बांधते हैं। प्रकृति के गुणों के कारण ही आत्मा में जीव भाव उत्पन्न होता है।

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌ ।
सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ ।6।

हे अर्जुन सुन, प्रकृति (माया) किस प्रकार अविनाशी आत्मा को अपने जाल में फंसाती है। सतोगुण सुख और ज्ञान के माध्यम में अविनाशी आत्मा को फंसाता है अर्थात वह ज्ञान देता है और ज्ञान का अहंकार भी उत्पन्न करता है और ज्ञानी होने का अहंकार उसे मिथ्या सुख से भ्रमित कर देता है। वह सच्चे ज्ञान व सच्चे आनन्द को भूल जाता है।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌ ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌ ।7।

रजोगुण सदा आत्मा को बहलाता है क्योंकि राग रूप रजोगुण का जन्म कामना और आसक्ति से होता है और संसार के विभिन्न रूपों की कामना उनमें आसक्ति प्राप्त होने पर बढ़ती ही जाती है। पहले थोड़ा मिला उसका सुख उठाया, फिर ज्यादा की इच्छा हुयी, आसक्ति बढ़ी, उसके लिए कार्य बढ़े (कर्म की इच्छा बढ़ी) और फल से सम्बन्ध बढ़ा, इस प्रकार देह स्थित आत्मा को जीव भाव की प्राप्ति होती है और वह जीवात्मा शरीर से बंध जाता है।

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ।8।

हे अर्जुन, तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है, यह आत्मा को पूर्ण रूपेण भ्रम में डाल देता है, वह अपना स्वरूप पूर्णतया भूल कर जीव भाव को प्राप्त इस शरीर को ही अपना स्थान, अपना स्वरूप मान बैठती है। प्रमाद, आलस्य और नींद इस तमोगुण के हथियार हैं, इनके द्वारा मन मूढ़ बन जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है, कर्म की इच्छा नहीं होती। उसकी बुद्धि कुम्भकर्ण जैसी हो जाती है जिसने तपस्या का फल छह माह की नींद मांगी। नीद को ही वह जीवन की सर्वोत्तम निधि मानता है। इसी में आनन्द अनुभव करता है।

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ।9।

हे अर्जुन, सतोगुण जीव में सुख का भाव उत्पन्न करता है। रजोगुण भी कामना और आसक्ति के माध्यम से सुख प्रदान करते हुए उसे अधिक-अधिक कर्म में लगाता है और तमोगुण उसके ज्ञान को ढक कर प्रमाद में लगाता है, उसे अज्ञान में सुख मिलता है। परन्तु यह सभी मिथ्या सुख क्रमशः अहंकार वश, आसक्ति वश और अज्ञान वश उत्पन्न होते हैं।

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ।10।

हे अर्जुन, यदि रज और तम को दबा दिया जाय तो सतोगुण बढ़ता है। सतोगुण और तमोगुण को दबा कर रजोगुण बढ़ता है तथा सत्त्व और रज को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।11।

हे अर्जुन, सभी जीवों में तीनों गुण भिन्न भिन्न मात्रा में होते हैं। कर्म प्रारब्ध और परिस्थिति वश गुणों की मात्रा में अन्तर भी आता है। जब देह में समस्त इन्द्रियों और मन में ज्ञान और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है तो सतोगुण बड़ा होता है।


लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।12।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।13।

जब रजोगुण बढ़ा होता है तो उस समय लोभ और सकाम कर्म करने की इच्छा उत्पन्न होती है और जीव कर्म में लग जाता है। फिर इच्छा पूरी हुयी तो उसकी पूर्ति के लिए अधिक से अधिक कर्म और विषय भोग की लालसा भी उत्पन्न होती है और इच्छा पूरी नहीं हुयी या भोग प्राप्त नही हुए तो अशान्ति उत्पन्न होती है। तमोगुण के बढ़ने पर मन, बुद्धि में अज्ञान छा जाता है, कर्म करने की भी इच्छा नहीं होती। प्रमाद, आलस्य, निद्रा यह सब उत्पन्न होते हैं।

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌ ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ।14।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ।15।

हे अर्जुन जब मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात जब देह त्यागता हैं तो ज्ञान में देह बुद्धि होने के कारण, श्रेष्ठ आचरण करने वाले विद्यावान और योगियों के घर में जन्म लेता है। योग भ्रष्ट पुरुष का जन्म इसी कारण होता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर मति किसी खास कर्म अथवा उसके फल भोग आदि में होती है अतः मृत्यु के बाद वह आसक्ति वाले रजोगुणी परिवार में जन्म लेता है और तमोगुण के बढ़ने पर जब मृत्यु होती है तो घोर तमस (अज्ञान) के कारण मति मूढ़ हो जाती है अतः अगला जन्म मूढ़ योनियों में होता है।

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌ ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌ ।16।

सतोगुण से ‘सुकृत’ (श्रेष्ठ आचरण) का जन्म होता है परिणामतः ज्ञान और निर्मल फल की प्राप्ति होती है। रजोगुण से उत्पन्न कर्म का अन्तिम परिणाम अशान्ति और दुःख है और तमोगुण मूढ़ता को जन्म देता है।

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।17।

सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है (विशुद्ध आत्मतत्व सतोगुण के पाश में बंधा जीवात्मा अहंकार युक्त रहता है) रजोगुण लोभ को जन्म देता है और तमोगुण से प्रमाद, मोह और मूढ़ता उत्पन्न होते हैं ।

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ।18।

सत्वगुण में स्थित पुरुष ऊर्ध्व गति को प्राप्त होते हैं अर्थात योगभ्रष्ट और विद्या विनय सम्पन्न घरों में जन्म लेता है। रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य गति को प्राप्त होते हैं अर्थात सकामी, लोभी, सांसारिक लोगों के घर में जन्म लेते हैं और तमोगुणी पुरुष नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात मूढ़ योनियों में जन्म लेते हैं।

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ।19।

जिस समय मनुष्य दृष्टा भाव से स्थित रहता है और सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणों को कर्ता देखता है, उस समय साक्षी भाव से कर्मों के कर्तापन से निर्लिप्त अर्थात अहंकार से मुक्त होकर परम स्थिति को तत्व से जानता है।

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ।20।

उस समय इस शरीर की उत्पत्ति के कारण इन तीनों गुणों का; साक्षी भाव से स्थित पुरुष, तत्व को जानते हुए उल्लंघन कर जाता है और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था सब उसके लिए खेल हो जाते हैं। देह उसके लिए सांप की केंचुली के समान हो जाता है। अतः देह भाव से निर्लिप्त वह मेरे स्वरूप (आत्मा) को प्राप्त होता है।

अर्जुन उवाच

कैर्लिङ्‍गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ।21।

अर्जुन बोले, हे भगवन ऐसा साक्षी भाव से तत्व में स्थित मुक्त पुरुष किन किन लक्षणों से युक्त होता है और उसका आचार विचार किस प्रकार का होता है और किन उपायों से वह तीन गुणों से मुक्त हो जाता है।

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‍क्षति ।22।

हे अर्जुन, आत्म स्वरूप में स्थित, सदा साक्षी भाव से देखता हुआ सतोगुण रूपी ज्ञान और उसके अहंकार, रजोगुण की कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण के भ्रम व मूढ़ता भाव यदि आते हैं तो उनमें यदि प्रवृत्त होता है तो बिना किसी आसक्ति और द्वेष के और यदि उन त्रिगुण भावों से अलग होता है तो उनकी कोई कामना नहीं करता क्योंकि उसे कर्म का अथवा अपने गुणों का कोई अभिमान नहीं होता, वह समुद्र के जल की तरह स्थित रहता है।

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्‍गते ।23।

वह उदासीनवत् अर्थात सुख-दुःख, हानि-लाभ में समान रहता हुआ किसी भी गुण से विचलित नहीं किया जाता है क्योंकि वह जानता है कि प्रकृति के गुण ही, गुण और कर्म का कारण हैं, वह यह जानकर गुणों के खेल को देखता रहता है। जिस प्रकार आकाश, वायु से प्रभावित नहीं होता उसी प्रकार वह आत्मरत पुरुष गुणों से प्रभावित नहीं होता और सदा आत्म स्थित रहता है और इस परम स्थिति से कभी भी विचलित नहीं होता।

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।24।

हे अर्जुन, मुझमें स्थित पुरुष सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय देखता है इसलिए वह सुख और दुःख को समान समझता है। उसके लिए मिट्टी पत्थर सब एक समान हो जाते है, प्रिय अप्रिय कोई नहीं रहता। सदा समभाव में स्थित रहता है। कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुति उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी बुद्धि सदा आत्म स्थित रहती है।

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ।25।

कोई उस व्यक्ति का अपमान करे, अपशब्द कहे अथवा उसकी महात्मा, ज्ञानी, ईश्वर समझकर पूजा करे, वह दोनों स्थितियों में सम रहता है। मित्र और वैरी उसके लिए समान हैं, दोनों में वह आत्म स्वरूप को देखता है शरीर में स्थित गुणों के कार्यों को देखकर मुस्कुराता है। उसकी अहं बुद्धि समाप्त हो जाती है अतः कर्तापन के भाव से रहित है। सदा साक्षी भाव से स्थित रहता हुआ तीनों गुणों का उल्लंघन कर जाता है।

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।26।

जो न भटकने वाली बुद्धि से मुझमें एकत्व रखता है, सदा मुझ आत्मतत्व में रत रहता है, स्वरूप, अनुभूति में निमग्न रहता है, वह तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। वह भुना हुआ बीज हो जाता है जिससे अंकुर नहीं फूटता है। इसी प्रकार उसके अन्दर अहं और आसक्ति का भाव कभी नहीं आता है। इस प्रकार परमात्मा से एकत्व रखने वाला पुरुष उसी परमतत्व, परमगति को प्राप्त होता है।


ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।27।

हे अर्जुन, जिसे ब्रह्म कहा गया है वह ब्रह्म ही यह आत्मा (मैं हूँ) है। मैं आत्मा अमृत हूँ अर्थात परम विशुद्ध ज्ञान हूँ जिसका कभी नाश नहीं होता। मैं ही स्वभाव (धर्म) का आश्रय हूँ। मुझे प्राप्त कर योगी परम आनन्द परम शान्ति को प्राप्त होता है। उस परम शान्ति और आश्रय का घर मैं आत्मा ही हूँ। यही अन्तिम स्थिति है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः14
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गीता - आत्मगीता - अध्याय-१३ - क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग (हिन्दी भाष्य ) / भाष्यकार बसन्त



वह परमात्मा जीव रूप में समस्त प्राणी मात्र में विभक्त हुआ अलग-अलग दिखाई देता है।          
उस परमात्मा का अंश परा प्रकृति (जीवात्मा) ज्योतियों की भी ज्योति है। सभी का तेज उसी के तेज से प्रकाशित है। सभी के तेज का आधार भी वह ब्रह्म अंश है। वह असत् (माया) से अत्यन्त परे है। वह बोध स्वरूप है। वह परब्रह्म का अंश जीवात्मा सबके हृदय में निवास करता है।


                                 आत्मगीता - भाष्यकार- प्रो. बसन्त प्रभात जोशी
                                                                             
                                     अथ त्रयोदशोऽध्यायः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग


श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।1।

यह शरीर क्षेत्र कहा गया है, जो यह जानता है वह शरीर का स्वामी है। शरीर के स्वामी जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ कहते हैं। हे अर्जुन, यह देह एक खेत की तरह है और क्षेत्रज्ञ, खेत के स्वामी किसान की तरह है।


क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।2।

सब क्षेत्रों में अर्थात सब शरीरों में जो यह क्षेत्रज्ञ जीवात्मा है वह तू मुझ शुद्ध अविनाशी आत्मा स्वरूप परमात्मा को जान। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान प्रकृति और पुरुष का है उसे मैं तुझे निश्चय पूर्वक बताता हूँ।

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्‌।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।3।

यह क्षेत्र खेत के समान है और जैसा, जिस प्रकार का  विकारों वाला है तथा जिस कारण से उत्पन्न हुआ है अर्थात इस शरीर का क्या कारण है इसमें कौन कौन से विकार रहते हैं, इसके साथ साथ यह क्षेत्रज्ञ जो है तथा जिस प्रभाव वाला है उसे भी जान।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्‌ ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ।4।

इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विषय में बहुत विचार हुआ है। अलग अलग मत इस विषय में हैं।वेदों में भी इस विषय को विभाग पूर्वक समझाया गया है। ब्रह्म सूत्र के पदों में भी इसे स्पष्ट किया गया है। कर्मवादी इस क्षेत्र का मालिक क्षेत्रज्ञ जीवात्मा को मानते हैं। सांख्य मत वाले जीव को क्षेत्रज्ञ नहीं मानते वह इसे  एक राहगीर की तरह समझते हैं। प्रकृति को वह क्षेत्रज्ञ मानते हैं जो अपने गुणों से इस शरीर के सभी कार्य सम्पादित करती है अन्य परमात्मा के संकल्प को क्षेत्र का कारण मानते हैं अतः इस विषय में तू मेरा निश्चित मत सुन।

महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ।5।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌ ।6।

पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दुःख, जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना (जो महसूस कराती है, इसको संवेदना भी कह सकते हैं; आत्मा की इस शरीर में जो सत्ता है उसके परिणामस्वरूप देह की महसूस करने की शक्ति; जैसे जहाँ अग्नि होती है वहाँ उसकी गर्मी, उसी प्रकार जहाँ आत्मा है वहाँ चैतन्य है। जैसे सूर्य और उसकी आभा है इसी प्रकार आत्मा और आत्मा की सत्ता का प्रभाव यह देह चेतना है। यह सम्पूर्ण शरीर में बाल से लेकर नाखून तक जाग्रत रहती है)। धृति (पंच भूतों की आपस की मित्रता ही धैर्य है)। जैसे जल और मिट्टी का बैर है पर वह इस शरीर में मित्रवत सम्बन्ध बनाते हुए रहते हैं इस प्रकार जल और अग्नि, वायु और अग्नि आदि। जब यह 36 तत्व एक साथ मिल जाते हैं तो क्षेत्र का जन्म होता है।
श्री भगवान सुस्पष्ट करते हैं - “यथा प्रकाशयत्येकः कृत्सनं लोकमिमं रविः क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्सनं प्रकाशयति भारतः” जिस प्रकार एक सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित अर्थात ज्ञान और क्रिया शक्ति से युक्त कर देता है। यह 36 तत्व पुरुष (क्षेत्रज्ञ) के कारण एक स्थान में इकट्ठा हो जाते हैं और क्रियाशील हो जाते हैं।


अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌ ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।7।

अपने में बड़प्पन का अभाव, अपने आचरण पर जो घमण्ड नहीं करता अर्थात अपने श्रेष्ठ गुणों एवं कार्यों को छिपाकर रखता है,जो अपने किसी आचरण से किसी भी जीव को कष्ट नहीं देता, छोटे से छोटा जीव के लिए भी जिसका आचरण अभय है, क्षमा भाव अर्थात अपने दुःखों और दूसरों के प्रति क्षमा। सब प्राणियों के प्रति सरलता, अपने पराये का भाव नहीं, गुरु की उपासना अर्थात अपने गुरु को श्री भगवान समझकर अपने हृदय रूपी मन्दिर में स्थापित करता है, गुरु की सेवा अर्थात जिसका प्रत्येक कार्य श्री गुरु महाराज के लिए होता है, जो बाहर भीतर से शुद्ध है अर्थात जिसके मन ने भटकना बन्द कर दिया है।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्‍कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌ ।8।

जिसकी इन्द्रियाँ विषयों की ओर नहीं भागती, जिसमें सतत् वैराग्य रहता है, लोक परलोक के सुखों के प्रति विरक्ति रहती है, जिसमें अहंकार का अभाव रहता है, जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था, रोग-शोक दोषों का बार-बार विचार कर आत्म ज्ञान में रत रहता है।

असक्तिरनभिष्वङ्‍ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।9।

पुत्र, स्त्री, घर, धन आदि में जिसे आसक्ति नहीं है, केवल कर्तव्य कर्म करता है, जिसमें ममता नहीं अर्थात संसार से जो उदासीन है, अपने पराये का भेद मिट गया है, जिसका चित्त प्रिय अप्रिय की प्राप्ति में सदा एक सा रहता है।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।10।

मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अर्थात शरीर, मन, वाणी, बुद्धि द्वारा सतत् परमात्मा से जु़ड़ा है, मेरी अव्यभिचारणी भक्ति करता है अर्थात पतिव्रता पत्नी जैसे पति भक्ति करती है उसी प्रकार जो मुझसे जुड़ा है, जो अपना कोई कार्य कोई भाव मुझसे नहीं छिपाता है, एकान्त, पवित्र स्थान में रहना जिसका स्वभाव है, लोगों से मिलने मिलाने में जिसे रस नहीं आता अर्थात संसार से उदासीन है।

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।11।

नित्य अध्यात्म ज्ञान में लगा रहता है अर्थात स्वभाव में स्थित रहता है (परमात्मा का और जीव स्वभाव का विवेचन करने वाली विद्या ही अध्यात्म विद्या है तथा दोनों को अनुभूत करने वाला ज्ञान अध्यात्म ज्ञान है)। तत्व ज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा में स्थित और निमग्न रहना ज्ञान है, इसके विपरीत जो है, वह अज्ञान है अर्थात ज्ञान का अभाव अज्ञान है। अज्ञानी देह को आत्मा समझता है, मिथ्या आचरण करता है, अहंकार में डूबा रहता है, परमात्मा के प्रति 1 - असम्भावना, 2- विपरीत भावना रखता है।

ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।12।

परमतत्व ही वह उपलब्धि है, जो जानने योग्य है और जिसे जानकर मनुष्य अमृत अर्थात परमज्ञान, परमशान्ति, परम आनन्द को प्राप्त होता है। वह परम तत्व न सत् है न असत् है अर्थात सत् असत् से परे है। अतः उसे ऋत (निश्चित) कहा गया है अथवा वह ब्रह्म सत् भी है तो असत् भी वही है, सभी कुछ उसी का विस्तार है।

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌ ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।13।
वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर, मुख वाला, सब ओर कान वाला है अर्थात सभी जगह, सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट में वही आत्मतत्व स्थित है। प्रत्येक प्राणी में वही व्याप्त है। वही विश्वात्मा है। यही नहीं जड़ प्रकृति भी उससे ओत प्रोत है। इस प्रकार परमात्मा, परा प्रकृति द्वारा सबको व्याप्त करके स्थित है।

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्‌ ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।14।

सभी इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला अर्थात जीव रूप में सभी विषयों को भोगने वाला जीवात्मा ही परमात्मा है परन्तु निराकार है, निर्गुण है, इन्द्रियों से रहित है और आसक्ति रहित है। अव्यक्त होने पर भी सभी का धारण और पोषण करता है और निर्गुण होने पर जीव रूप में सभी गुणों को भोगता है।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌ ।15।

वह परमात्मा जीव रूप में सभी प्राणियों के बाहर-भीतर है, चर अचर में सभी जगह वह स्थित है तथा इतना सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है कि उसे आखों से देखा नहीं जा सकता है बुद्धि से भी उसे खोजा नहीं जा सकता अतः उसे जाना नहीं जा सकता। उसे निराकार अथवा अव्यक्त कहना नितान्त उचित है। वह अत्याधिक समीप भी है तो अत्यन्त दूर भी है।

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌ ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।16।

वह परमात्मा जीव रूप में समस्त प्राणी मात्र में विभक्त हुआ अलग-अलग दिखाई देता है। वह जानने योग्य परमतत्व ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण व स्वरूप है। देह में जब तीनों स्थितियां समाप्त हो जाती हैं तब वह परम स्थिति रहती है। वही जानने योग्य ज्ञान है। वही परमब्रह्म परमात्मा है।

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌ ।17।

उस परमात्मा का अंश परा प्रकृति (जीवात्मा) ज्योतियों की भी ज्योति है अर्थात सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि सभी का तेज उसी के तेज से प्रकाशित है। सभी के तेज का आधार भी वह ब्रह्म अंश है। वह असत् (माया) से अत्यन्त परे है। वह बोध स्वरूप है अर्थात उसे आत्म ज्ञान से ही जाना जा सकता और प्राप्त किया जा सकता है। वह परब्रह्म का अंश जीवात्मा सबके हृदय में निवास करता है।

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ।18।

हे अर्जुन, इस क्षेत्र को तुझे भली भांति बता दिया है, साथ ही परम ज्ञान को और जानने योग्य (ज्ञेय) जीव (पराप्रकृति), परब्रह्म परमात्मा जो परम स्थित है को संक्षेप में बता दिया है। जो भी आत्मरत मेरे भक्त हैं वह क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और परम स्थिति को जानकर आत्म स्वरूप हो जाता है।

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌ ।19।

पुरुष और प्रकृति दोनों अनादि हैं जैसे शरीर और उसकी छाया। इसी प्रकार परमात्मा और उसकी छाया प्रकृति है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ भी इसी प्रकार अभिन्न हैं। क्षेत्र अर्थात प्रकृति, क्षेत्रज्ञ अर्थात पुरुष, ब्रह्म अंश जीवात्मा है और जितनी भी विकृति हैं जैसे राग द्वेष; इन सबका कारण प्रकृति है। इसी प्रकार सभी गुण (सत्त्व, रज, तम) भी प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।20।

कार्य करण को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु है अर्थात प्रकृति के कारण अहंकार और इच्छा का जन्म होता है। इच्छा के वशीभूत प्राणी कर्म में लग जाता है। जैसी प्रकृति वैसा अहंकार वैसी इच्छा वैसा ही कर्म। जैसे सत्त्व ज्ञान की ओर लगाता है, तम भ्रम उत्पन्न कर अज्ञान की ओर ले जाता है। पुरुष प्रकृति से उत्पन्न सभी अच्छे- बुरे कर्म, सुख-दुःख को भोगता है। पुरुष प्रकृति साथ रहते हैं परन्तु उनका कार्य और व्यवहार अलग-अलग हैं। पुरुष (जीवात्मा) चुपचाप भोग करता है, प्रकृति कार्य करती है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌ ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।21।

पुरुष, (जीवात्मा) प्रकृति में स्थित रहकर प्रकृति से उत्पन्न अच्छे बुरे, सुख-दुख सभी गुणों को भोगता है। यद्यपि पुरुष अकर्ता, उदासीन अभोक्ता है फिर भी प्रकृति अपने गुणों से उसको मोहित कर गुणों का संग कराती है। इस कारण अविनाशी ब्रह्म प्रकृति के आधीन हो जाता है और उसे अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेना (दिखायी) पड़ता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है ब्रह्म में कोई विकार नहीं होता, प्रकृति स्वयं उसका विकार बन जाती है। वह उसकी इच्छा बन जाती है। अपने गुणों से वह ब्रह्म तेज को आच्छादित कर (ढक) देती है। निरहंकार ब्रह्म का अहंकार भी वह बन जाती है। साधारण मनुष्य जिस प्रकार स्त्री के चालों के आगे बेबस हो जाता है उसी प्रकार शुद्ध ब्रह्म तेज प्रकृति की चालों से उसके गुण दुर्गणों से बेबस हो जाता है।


उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।

इस देह में स्थिति जीव आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपदृष्टा, यथार्थ सम्मति देने के कारण अनुमन्ता, सबका पालन पोषण करने वाला, सभी कुछ भोगने वाला, सबका स्वामी और परमात्मा है। प्रकृति के विलक्षण प्रभाव के बाद भी पुरुष (आत्मतत्व) सदा स्थित रहता है। उसी के प्रभाव से प्रकृति का जन्म होता है और उस प्रकृति का विलक्षण प्रभाव यह है कि वह उस पुरुष को भ्रम में डाल देती है। फिर भी उसकी सत्ता देह में सदा स्थित रहती है और वह साक्षी, अनुमन्ता, भोक्ता, महेश्वर रूप से सदा स्थित रहता है।

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।23।

इस प्रकार पुरुष जो कि परमात्मा का ही अंश है माया के कारण उसे जीव भाव की प्राप्ति हुई है तथा गुणों सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, उसे भ्रान्ति नहीं होती, उसे जीव भाव प्राप्त नही होता, वह प्रकृति और उसके आधीन नहीं होता, उसका अन्तःकरण सदा ज्ञान से प्रकाशित रहता है। सभी कर्मों को करता हुआ वह कर्मों और उनके फल में आसक्त नहीं होता, इस कारण कर्मबन्धन क्षय होने से उसका जन्म नहीं होता। वह माया (प्रकृति) के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।24।

कोई आत्मा को आत्मा में, आत्म ध्यान अर्थात आत्मरत होकर देखते हैं। कई ज्ञान योग द्वारा और कई निष्काम कर्मयोग द्वारा आत्म साक्षात्कार करते हैं।

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ।25।

कोई इस प्रकार कर्म योग, ज्ञान योग आदि को न जानते हुए, अहंकार को छोड़कर श्रद्धा विनय से युक्त साधक किसी कर्म योगी, ज्ञान योगी या अन्य तत्व वेत्ता की बातों में विश्वास कर उपासना करते हैं और श्रवण करके तथा श्रवण से उत्पन्न श्रद्धा से परमात्मा के निमित्त (जो भी उपासना उन्हें बतायी है) कोई अपना धन, कोई सेवा, कोई अपना तन आदि लगा देते हैं। इस प्रकार वह श्रद्धावान पुरुष स्वाभाविक रूप से मुझ आत्म स्वरूप परमात्मा से जुड़ जाते हैं और माया बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्‍गमम्‌ ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।26।

इस संसार में जितने भी स्थित और चलने फिरने वाले प्राणी हैं (जीव हैं) वह प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न होते हैं।

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌ ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।27।

जो सब भूतों में परमात्मा को स्थित देखता है। समस्त भूत पुरुष और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होते हैं फिर सब में परमात्मा अकेला कैसे? प्रकृति के कारण सृष्टि में भिन्न भिन्न प्रकार के जीव हैं, 84 लाख योनियाँ हैं सब का कार्य व्यवहार अलग-अलग हैं फिर एकता किस प्रकार ? इस अद्वैत को जानने के लिए परमात्मा और प्रकृति की एकता जानना आवश्यक है। परमात्मा परम विशुद्ध ज्ञान है। परमात्मा की ज्ञान शक्ति तत्पश्चात उत्पन्न क्रिया शक्ति ही प्रकृति है अर्थात परमात्मा की छाया प्रकृति है। यही क्रिया शक्ति विभिन्न ज्ञान शक्ति से मिलकर विभिन्न गुणों को जन्म देती है। परन्तु इस प्रकृति का मूल भी परमज्ञान है। उस परम ज्ञान के कारण ही प्रकृति के 36 तत्व उत्पन्न होते हैं और उसकी मौजूदगी के कारण देह में स्थित रहते हैं। उन तत्वों का आदि कारण भी परमात्मा ही है। महाप्रलय में सभी अव्यक्त में स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार जान कर जो सम भाव से परमात्मा को सभी प्राणियों में देखता है, वही वास्तव में देखता है। यदि इतना सूक्ष्म न भी देखा जाय तो परमात्मा की क्रियाशील ज्ञान शक्ति जीवरूप में सभी भूतों में व्याप्त है। जो ज्ञानी यह जानता है उसे ही यथार्थ ज्ञान है।

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्‌ ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्‌ ।28।

जो समभाव में स्थित होकर परमात्मा को सब में समान रूप से देखता है उसे न किसी से मोह होता है न किसी से द्वेष होता है। उससे कोई त्रास नहीं पाता है वह किसी से उद्विग्न नहीं होता है। यह भाव जिस ज्ञानी का हो जाता है वह अपने आत्म स्वरूप को भ्रम में नहीं डालता अर्थात जीव भाव को प्राप्त नहीं होता। उसका परमतत्व सदा जाग्रत रहता है, वह कभी भी नष्ट नही होता और वह परम स्थान, परम गति का अधिकारी होता है।


प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।29।

जो पुरुष यह जानता है कि सभी कर्म प्रकृति द्वारा किये जाते हैं, आत्मा की ज्ञान शक्ति ही क्रियाशक्ति उत्पन्न करती है। उससे सभी प्रकृति के तत्व बुद्धि मन इन्द्रियाँ अनेकानेक कार्य करने लगती हैं। आत्मा सदा अकर्ता अक्रिय है। जो इस बात को जानता है वह यथार्थ जानता है।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।30।

जिस समय योगी भूतों के भिन्न भिन्न भाव को एक (परमात्मा) में स्थित देखता है और उस एक (परमात्मा) में सबका विस्तार देखता है अर्थात ’एकोहम् द्वितियो नास्ति‘ और ’हरि बोध मयी दृष्टि‘ रखता है। सम्पूर्ण सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने अन्दर आत्मतत्व में समाहित देखता है तथा अपनी आत्मा को सभी भूतों मे व्याप्त देखता है। परम ज्ञान को अनुभूत करने पर ही यह स्थिति आती है। इसे प्राप्त हो योगी ब्रह्म स्वरूप हो जाता है।

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।31।

हे अर्जुन, अनादि, निर्गुण और अविनाशी परमात्मा इस शरीर में स्थित होने पर न कुछ करता है न लिप्त होता है। परमात्मा शुद्ध परम ज्ञान है, उसकी ज्ञान और क्रिया शक्ति के कारण उसकी प्रकृति द्वारा कार्य होते हैं परन्तु उसका उस क्रिया और फल से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता जैसे सूर्य का बिम्ब जल में पड़ता है परन्तु पानी से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार परमात्मा अथवा आत्मा का देहस्थ होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ।32।

जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण अपने भीतर स्थित वायु, अग्नि, स्थूल पदार्थ, जल आदि से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार देह (क्षेत्र) में सभी जगह स्थित आत्मा निराकार और अक्रिय होने के कारण न देह के गुणों से लिप्त होता न कुछ करता है।

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ।33।

जिस प्रकार सूर्य इस सम्पूर्ण सौर मण्डल को प्रकाशित करता है अर्थात सूर्य के कारण संसार है, जीवन है आदि। उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को जीवन देता है, ज्ञानवान बना देता है क्रियाशील बना देता है।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्‌ ।34।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अर्थात देह और उसके स्वामी सम्बन्धी ज्ञान को, उनके अन्तर को जो जानता है तथा प्रकृति के बन्धन से जीव की मुक्ति के उपाय को जानता है वह तत्व ज्ञानी सतत् प्रयास करते हुए आत्म बोध को उपलब्ध हो परम स्थिति को प्राप्त होते हैं।


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः13
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